SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ अध्याय : ८९ है । कुम्हार मिट्टी तथा जल को मिलाकर उसमें क्षार तथा करीष 'मिलाकर मृत्तिकापिण्ड तैयार करता था । फिर उसे चाक पर रखकर दण्ड और सूत्र की सहायता से आवश्यकतानुसार छोटे-बड़े पात्र तैयार करता था । कुम्हार की पंचविध शालाओं का उल्लेख है । जहाँ बर्तन • बनाये जाते थे उसे “कुम्भशाला" कहा जाता था, जहाँ जलाने के लिये तृण • लकड़ी और गोबर के उपले रखे जाते थे उसे " इंधणसाला " कहा जाता था, 'जहाँ निर्मित बर्तन भट्ठी में पकाये जाते थे उसे 'पचनसाला' कहा जाता था, निर्मित बर्तनों को एकत्रित और सुरक्षित करने का स्थान ' पणतसाला' कहा जाता था । ३ जब बर्तन तैयार हो जाते थे तो उन्हें विविध प्रकार के रंगों से सजाया जाता था । पोलासपुर के सकडालपुत्र का भाण्ड उद्योग बृहद् स्तर पर था । उसमें पूँजी निवेश एक करोड़ स्वर्णमुद्राओं के लगभग था । नगर के बाहर उसकी ५०० दुकानें थीं । सैकड़ों वेतन भोगी नौकर थे । कुम्भकार पानी रखने के लिए घड़े, चपटे पेदे वाली मिट्टी की परात, मटके, छोटे मटके, सुराही तथा धान्य आदि रखने के पात्रों का निर्माण करते थे । " सकडालपुत्र की कर्मशालाओं के नगर के बाहर होने से ज्ञात होता है कि कुम्हार की शालाओं में भट्ठियों के जलने से होने वाले वायु प्रदूषण और नगरवासियों - को होने वाली असुविधा को ध्यान में रखकर कुम्भारशालायें नगर के हर स्थित होती थीं । बिक्री का कार्य राजमार्गों और चतुष्पथों पर ★ किया जाता था । प्रायः आज भी मिट्टी के बर्तनों का विक्रय इन्हीं स्थानों पर होता है । निशीथचूर्णी से ज्ञात होता है कि विक्रय हेतु दूसरे गाँव या नगर में ले जाने पर बर्तनों पर शुल्क लगता था । एक भाण्ड व्यापारी के पास बीस गाड़ी बर्तन थे, उसने एक गाड़ी बर्तन राज्याधिकारी को शुल्क में दिये थे । १. उपासकदशांग, ७ / १९ २. वही, ७ / ७; बृहत्कल्पभाष्य भाग १ गाथा ३०६ ३. बृहत्कल्पभाष्य, भाग ४ गाथा ३४४५ ४. “पारकम्मितरंगिते भायणे" निशीथचूर्णि भाग ३ गाथा ४५६१ ५. उपासकदशांग, ७/४, ६, ७ ६. निशीथचूर्णि भाग ४ गाथा ६५२१
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy