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________________ 20 / Jijñāsā काव्य, दृश्य-श्रव्य कलाओं तथा नैसर्गिक रूपों में दो तत्त्व सामान्यतः होते हैं। एक, अन्तस्थ भाव और दूसरा उसका व्यञ्जक रूप । प्राकृतिक रूप भी व्यञ्जक रूप ही है। यह व्यञ्जक रूप ही प्रेक्षक या सहृदय को व्यंग्य (सौन्दर्य) या कलाकार के मनोगत रूप का बोध कराता है। नैसर्गिक दृश्य के संदर्भ में भी प्रेक्षक उस अव्यक्त स्रष्टा का अनुभव करता है। इस प्रकार, व्यञ्जक रूप तथा व्यंग्य भाव सौन्दर्य के आधार तत्त्व हैं । प्राकृत जन अपनी अनुभूति के प्रकाशन में असमर्थ होने के कारण कलाकृति या सौन्दर्य के व्यञ्जक रूप से अव्यक्त अर्थ को ग्रहण करके भी प्रकाशित नहीं कर पाते। सौन्दर्य से उत्पन्न आह्लाद या आस्वाद अनिर्वचनीय होता है "ज्यों गूंगा मीठा फल चाखै" । सौन्दर्य भीतिक वस्तु में न रहते हुए भी औपाधिक और चेतना सापेक्ष है इसीलिए इसे प्रतीयमान धर्म भी कहा है। । सौन्दर्य का लक्षण करते हुए आचार्य ने सहज काम्यत्व तथा तज्जनित आकर्षण का परिहार करते हुए चमत्कृति को शिल्प तथा काव्य में समान रूप से व्याप्ति के कारण सौन्दर्य का लक्षण माना है तथा इसे लोकोत्तर आह्लाद उत्पन्न करने के कारण रमणीयता कहा है, जो समान रूप से चित्र, मूर्ति, संगीत, काव्य, नाट्य तथा नैसर्गिक रूपों में व्याप्त है और इसे ही रूप में रहने वाला अतिशय विशेष कहा गया है। यह अतिशय विशेष सभी दृश्य-श्रव्य रूपों का कारक हेतु है जो समान रूप से ज्ञान तथा राग उत्पन्न करता है। ज्ञान तथा राग सभी अतिशय - विशेष युक्त रूपों में व्याप्त होने के कारण सौन्दर्य के व्यावर्तक लक्षण हो सकते हैं। परन्तु इसे सौन्दर्य नहीं कहा जा सकता। यह केवल बाह्य रूप तक ही सीमित होता है। यह वस्तुनिष्ठ भाव है। आभ्यन्तर व्यंग्य सौन्दर्य इससे भिन्न है। व्यंग्य सौन्दर्य तथा उसका कारणभूत रूप प्रज्ञा से अन्तर्मन में ही उद्भासित होता है रूप का तात्पर्य सामान्यतः इन्द्रियग्राह्य वर्ण संस्थान (आकार) या प्रतीयमान आकृति है। इस आकृति का अतिशय ही सौन्दर्य है। शिल्प या स्वाभाविक संरचना, जो अव्यक्त को व्यक्त करती है, रूप है। अतः रूप, प्रतीक, संकेत तथा लक्षण भी होता है। उपनिषदों में नाम तथा रूप ईश्वर की उपाधि है, नाम रूपात्मक जगत का निर्माण कर परमात्मा उसमें अनुप्रविष्ट हो गया। अतः सृष्ट सभी पदार्थों में वह व्यक्त है अस्तु ईश्वर को कवि तथा उसकी सृष्टि को काव्य कहा गया है। वैदिक साहित्य में देवत्व की प्रतीति और सौन्दर्य की प्रतीति में भेद नहीं किया गया है। सौन्दर्य के गुणों के निरूपण में देवत्व के गुणों का आधार लिया गया है। अस्तु, सौन्दर्य तत्त्व परम तत्त्व के समकक्ष ही है। शुचिता, पवित्रता, कान्तिमत्ता, तेजस्विता, वीरता, गौरव, महिमा, अदभुतता भय, प्रीति, विस्मयजनकता आदि लोकोत्तर गुण समान रूप से देवत्व तथा सौन्दर्य में व्याप्त होने के कारण देवत्व की प्रतीति तथा सौन्दर्य तत्त्व की प्रतीति में भेद नहीं किया जा सकता। भारतीय दर्शन में भी रूप की व्याख्या गुणों के संकेत या प्रतीक रूप में ही मानी गयी है। इस संदर्भ में आचार्य पाण्डे ने कलामर्मज्ञ श्री कुमारस्वामी तथा महर्षि अरविन्द के अभिमतों को उद्धृत करते हुए इस विचार को अधिक प्रशस्त भूमि पर प्रस्तुत किया है। इन दोनों दार्शनिकों ने काव्य तथा कलादि का मुख्य लक्षण आधिमानसिक प्रतिभा से जनित सांकेतिकता को ही माना है। अतएव यह कहा जा सकता है कि वैदिक दर्शन में रूप देवत्व का संकेत है। इसका उदाहरण देते हुए आचार्य पाण्डे ने कहा है "दिव्य कवि द्वारा सृष्ट रूप वस्तुभूत जगत्स्वरूप है, जबकि मर्त्य कवि द्वारा सृष्ट वह (रूप) वाङ्मय काव्य अथवा शिल्प है। इस प्रकार सांकेतिकत्व ईश्वरकृत सहज संकेत से सभी पदार्थों में, मानवीय संकेत से काव्य, कलादि में व्याप्त है। इस आगम-परम्परा में परवर्ती भी आध्यात्मिक अर्थ के व्यञ्जक भागवत, दिव्यप्रबन्ध, रामचरितमानस, आदि नाना युगों में उत्पन्न काव्य हैं।" (सौन्दर्यदर्शनविमर्श, पृष्ठ- 60) "
SR No.022812
Book TitleJignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibha Upadhyaya and Others
PublisherUniversity of Rajasthan
Publication Year2011
Total Pages272
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size11 MB
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