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________________ आचार्य गोविन्दचन्द्र पाण्डे का सौन्दर्य विमर्श / 17 अवधारणा द्वारा ही संभव थी। भारतीय वाङ्मय में सौन्दर्य तत्त्व का विवेचन यद्यपि वैदिक साहित्य, नाट्यशास्त्र, शिल्पशास्त्र, अलंकारशास्त्र में अप्रत्यक्षतः प्राप्त होता है, परन्तु स्वतन्त्र सौन्दर्य दर्शन या अन्वीक्षा का अभाव ही माना जाता है। इस अभाव की पूर्ति करते हुए आचार्य पाण्डे ने सौन्दर्यदर्शनविमर्श द्वारा सौन्दर्य अन्वीक्षा के दार्शनिक आधार को पुष्ट करते हुए कारिका, वृत्ति तथा संग्रह श्लोकों के क्रम में अभिनवगुप्तपादाचार्य की परम्परा को पुनः साकार किया है तथा सौन्दर्यशास्त्र को विज्ञान न मानते हुए दर्शन के रूप में प्रस्थापित किया है। विज्ञान तथा दर्शन में अन्तर यह है कि दर्शन के निष्कर्ष बुद्धि द्वारा ग्राह्य एवं कल्पना द्वारा अनुभूत होते हैं तथा शास्त्र होने के कारण उसके अध्ययन में क्रमबद्धता तथा तर्क को आधार बनाया जाता है। जबकि विज्ञान के तत्त्व भौतिक रूप से सत्यापित किये जा सकते हैं। यहाँ यह भी विचारणीय है कि अंग्रेजी भाषा के 'साईन्स' शब्द का अनुवाद 'शास्त्र' उस विषय के अध्ययन की विधियों की प्रामाणिकता एवं क्रमबद्धता का द्योतक है, जो विज्ञान द्वारा संभव नहीं होता। अतएव आचार्य पाण्डे ने इसे स्वतन्त्र शास्त्र का एकत्व तथा दर्शन की बौद्धिकता प्रदान की है। दर्शन के रूप में सौन्दर्य शास्त्र का अध्ययन अधिक समीचीन इस दृष्टि से भी है कि जब कोई विद्या या शास्त्र नाना रूपों में विकसित होता है, तब प्रयोग, विधि, रूढ़ि, एक-देश-परकता, प्रयोजन, आधार आदि के भेदों के होते हुए भी तात्त्विक रूप से उसे सार्वभौमिक और सार्वकालिक स्वरूप प्रदान करने की क्षमता तात्त्विक अन्वीक्षा में ही होती है। इस प्रकार सौन्दर्य के तात्त्विक विवेचन और विविध कलाओं में सौन्दर्यानुभूति का विचार भी दार्शनिक अन्वीक्षा का विषय है। यह पुस्तक तीन भागों में विभाजित है। प्रथम भाग “सौन्दर्य तत्त्व के विमर्श' में सौन्दर्य शास्त्र के स्वरूप का विवेचन, प्राच्य एवं पाश्चात्य, प्राचीन एवं अर्वाचीन दृष्टिकोणों के समन्वित रूप में प्रस्तुत है। आचार्य पाण्डे सौन्दर्य के इन्द्रिय-गोचर, विषयगत तत्त्वों तथा अनिर्वचनीय अतिशय विशेष को बौद्धों के स्वलक्षण के समान व्याख्यायित करते हुए चमत्कार की कोटि में रखते हैं।" द्वितीय भाग में काव्य तथा अन्य दृश्य-श्रव्य कलाओं के रूप तथा आस्वाद के सभी पक्षों का विवेचन समग्र रूप से प्रस्तुत करते हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि विविध कलाओं के रूप तत्त्व की व्याख्या तो की गई है परन्तु इन रूपों का निर्माण कलाकार के मानस में किस प्रक्रिया द्वारा होता है? यह प्रश्न उपेक्षित रह गया है। लेखक का प्रमुख प्रतिपाद्य सौन्दर्य के आधारभूत इन्द्रिय-गोचर, विविध कला रूपों का दार्शनिक स्वरूप ही है न कि रूपों की निर्मिति की व्याख्या। इस संदर्भ में इटली के विद्वान् नोली तथा एस.के. डे के विचार उल्लेखनीय हैं। नोली के अनुसार भारतीय सौन्दर्य चिन्तन अधिकांश में प्रेक्षक केन्द्रित रसानुभूति की विवेचना करता है, यद्यपि कुछ विद्वानों ने कवि प्रतिभा सम्बन्धी उल्लेख अवश्य किये हैं जैसे-आनन्दवर्धन, भट्टतौत और अभिनवगुप्त के उल्लेख काव्य सृजन प्रक्रिया का अप्रत्यक्षत: उल्लेख करते हैं। इसके विपरीत एस.के. डे ने आग्रहपूर्वक इसका विरोध किया है क्योंकि संस्कृत आचार्यों ने प्रतिभा के कारयित्री तथा भावयित्री पक्षों का उल्लेख तो किया है परन्तु कारयित्री की उपेक्षा की गई है। भारतीय चिन्तन सृजन शक्ति की विशेषताओं के निरूपण पर बल देता है जबकि पाश्चात्य चिन्तन में काव्यादि की सृजन प्रक्रिया पर विशेष ध्यान दिया गया है। आचार्य पाण्डे द्वारा सृजन प्रक्रिया की उपेक्षा के मूल में संभवतः भारतीय परम्परा के प्रति विशेष अनुराग ही कारण रहा होगा। सौन्दर्य तत्त्व एवं रूप की व्याख्या में आचार्य पाण्डे का प्रयास पाश्चात्य एवं भारतीय चिन्तन को समन्वित रूप से प्रस्तुत करने का है। वे अभिनवगुप्त के कला एवं काव्य सम्बन्धी विचारों को प्रस्तुत करते हुए सूजन लैंगर, औटोबेन्श, आदि पाश्चात्य विद्वानों के मतों के साथ तुलना भी करते हैं। इस प्रकार आधुनिक विद्वानों के समक्ष सौन्दर्यशास्त्र के समग्र चिन्तन को व्यवस्थित एवं प्रामाणिक रूप में संस्कृत भाषा में प्रस्तुत करने का श्रेय आचार्य पाण्डे को ही है। उनके विवेचन ने भारतीय सौन्दर्य शास्त्र सम्बन्धी समीक्षा को नया आयाम प्रदान करने के साथ
SR No.022812
Book TitleJignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibha Upadhyaya and Others
PublisherUniversity of Rajasthan
Publication Year2011
Total Pages272
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size11 MB
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