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________________ xxvi / Jijiyasa निर्विकल्प तात्कालिक ज्ञान स्मृति से भिन्न होते हुए भी विकल्प वाक्यों के व्यवस्थित समूह के रूप में शास्त्रीय विद्या तभी बनता है जब वह विकल्पों के आरोप के साथ चलता है। यह भी एक अनिषेध्य सत्य है कि साक्षात्कारात्मक ज्ञान में प्रत्यभिज्ञान का भी भान होता है, अन्यथा उसमें विकल्प योजना सम्भव ही नहीं। इस प्रकार आभासों का आत्मप्रत्यवमर्श ही ज्ञान का स्वरूप है। वह नित्यसिद्ध आत्मविदित सत्य का ही अनावरण और प्रत्यभिज्ञान है। यह सही है कि व्यावहारिक स्तर पर बाहरी अर्थों की खोज अपनी खोज से सर्वथा पृथक् प्रतीत होती है परन्तु न सिर्फ व्यावहारिक अर्थ विकल्पित होते हैं और उनका सत्यत्व अनुभवसापेक्ष अर्थक्रियाकारित्व की अविसंवादकता का दूसरा नाम है अपितु इन बाह्यार्थों का ज्ञान ही जैसे-जैसे गहरा होता है, वह बुद्धिगोचर तत्त्वों की व्यवस्था में परिणत होता जाता है। स्थूल प्रत्यक्ष और वैज्ञानिक ज्ञान का यह अन्तर सुविदित है। वैज्ञानिक ज्ञान प्रत्यक्ष से सत्यापनीय अथवा मिथ्यापनीय होते हुए भी स्वयं अप्रत्यक्ष सम्बन्ध सूत्रों में व्यवस्थित होता है। उसका सम्बन्ध अवश्य ही प्रत्यक्ष से बना रहता है किन्तु वह प्रत्यक्ष के संख्यामानात्मक गुणों के विश्लेषण में जिन संरचनाओं का आभास पाता है उन्हें विशुद्ध गणितीय तार्किकबुद्धि से अलग नहीं किया जा सकता है। यह युग-युग से आश्चर्य का विषय रहा है कि कैसे विशुद्ध प्रातिभबुद्धि से साक्षात्कृत सत्य प्रत्यक्षगोचर स्थूल जगत् में चरितार्थ हो जाता है। सर जैम्स जीन्स का कथन कि विश्वस्वष्टा गणितज्ञ ही होना चाहिए। उस प्राचीन परम्परा का एक लघुकृत रूप है जो समस्त सृष्ट जगत् में ऋत का ही सूत्र देखते हैं। ऋत और सत्य ही प्रथम तत्त्व थे समयातीन रूप से विद्यमान सत्य के अनुसार ही सब अर्थों का विधान हुआ । प्रत्यक्ष वाह्यार्थों का अनुसन्धान करते हुए जो ज्ञान प्राप्त होता है वह कितना ही सूक्ष्म अथवा बुद्धि तात्विक हो वह सभी विषयता की कोटि के अन्तर्गत होते हैं। विषयता विषय भिन्न होने के कारण जड़ना से परिगृहीत होता है। परिच्छिन्न होने के कारण वह सापेक्ष होता है। जहाँ तक वह कारित्रयुक्त होने से द्रव्यसत् होती है। वह अनित्य होती है। इस प्रकार प्रत्यक्ष और तत्पूर्वक अनुमान के द्वारा अथवा विकल्पमान सिद्धज्ञान अथवा परिच्छेदकबुद्धिवृत्ति से निष्पन्न ज्ञान सभी अनात्म विषयक है। यह प्रातिभासिक और परतन्त्रज्ञान आत्मा - अनात्मा के भेद और अध्यास को पूर्वसिद्ध मानकर ही निष्पन्न होता है. इस प्रकार का ज्ञान ही अध्यात्मविद्या की परम्परा में अज्ञान अथवा मिथ्याज्ञान माना जाता रहा है। इस अज्ञान के अनेक स्तर हैं, एक तो नैसर्गिक अज्ञान है जो कि देहात्मबुद्धि के रूप में रहता है। यह ज्ञान भी है और मिथ्या ज्ञान भी है। दूसरा सामाजिक भूमिकाओं के तादात्म्य से जो विकल्पित अहंबुद्धि होती है उसका विकसित रूप स्वरूपतः गौण होते हुए भी व्यवहार में सहज सा प्रतीत होता है। कोई भी नैतिकबुद्धि से युक्त सामाजिक प्राणी अपने कर्तृत्व को सामाजिक भूमिका से अलग नहीं कर पाता। संन्यासी भी संन्यास धर्म से नियन्त्रित होता है। अवधूत तो ज्ञानी ही है, अज्ञान का तीसरा आयाम तथाकथित ज्ञानवृत्ति या प्रमाणवृत्ति में रहता है जो कि विषयता की कोटियों का ही अवगाहन करती है और उन्हें नहीं छोड़ सकती। इस प्रकार देहात्मबुद्धि सामाजिक तादात्म्य प्रवृत्तिज्ञानात्मकता जिसके लिए 'ज्ञानं बन्धः' कहा गया है। तीनों ही अविद्या के पर्व है। वास्तविक ज्ञान अविद्या के हटने से ही सम्भव है। अध्यात्मविद्या की परम्परा से उपलब्ध ये तत्त्व न कोरी सन्देहास्पद मान्याताएं हैं, न अव्यावहारिक बारीकियाँ । अध्यात्मविद्या का आधार योगानुभूति ही है। और योग की परम्परा, ऋषियों से वर्तमान महात्माओं तक अविच्छिन्न । यह परम्परा सिर्फ भारतीय ही नहीं है यह सार्वदेनिक अथवा सर्वयुगीन है। यद्यपि सब देशकाल की संस्कृतियों ने इस गुह्य सनातन परम्परा को समान रूप से व्यक्त नहीं होने दिया है। नाना प्रकार के धार्मिक, अधार्मिक भौतिकवादी और वैचारिक आग्रह ने इसे तिरस्कृत और निरुद्ध किया, उदाहरण के लिए एक नयी पुस्तक में मैकियावेली की सेप आव एन्शियेष्ट थॉट में योग और उससे जुड़े ज्ञान को बुद्धि विरुद्ध शमनों का व्यवहार बताया गया है। अनेक भारतीय दार्शनिक भी आध्यात्मिक सत्य के चिरन्तन तत्त्वों को मुक्तिरहित मान्यता बताते हैं। दासगुप्ता ने इसी प्रकार भारतीय दर्शन के चार पूर्वाग्रह या डॉग्मा का उल्लेख किया है। इस सम्बन्ध में प्रो. राधाकृष्णन्, विवेकानन्द और श्री अरविन्द का युक्तियुक्त प्रतिपादन मुझे सही लगता है। आध्यात्मिक सत्य प्रत्यात्मभिज्ञ है स्वानुभूति से ही उसका पता चल सकता है और स्वानुभूति ही
SR No.022812
Book TitleJignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibha Upadhyaya and Others
PublisherUniversity of Rajasthan
Publication Year2011
Total Pages272
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size11 MB
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