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________________ xx / Jijîyasa लॉजिक एण्ड फिलॉसफी' पर दयाकृष्ण ने एक राष्ट्रीय संगोष्ठी की थी जिसमें मैंने सम रिफ्लेक्शन ऑन द नेचर ऑफ मैथमेटिक्स पर एक आलेख प्रस्तुत किया था जो प्रकाशित हुआ। वहीं शिवजीवन भट्टाचार्य, के. के. बनर्जी, प्रद्योत मुखोपाध्याय और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से परिचय हुआ। ___ इस सम्पर्क से अगले दशाधिक वर्षों में मैंने अपने चिन्तन को अनेक लेखों और पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किया। 1964 में इण्टरनेशनल काँग्रेस ओरिएण्टलिस्ट में कविराज जी की प्रेरणा से महायान के आध्यात्मिक उद्गम पर मैंने आलेख पढ़ा। उसी वर्ष गोखले इन्स्टीटयूट, पुणे में एक सेमिनार में मुख्य विवादी स्वर के रूप में भारतीय समाज का स्वरूप इस शीर्षक से आलेख पढ़ा, जो रैडिकल ह्यूमनिस्ट में छपा और प्रत्यालोचना का विषय बना। 1966 में दयाकृष्ण को निमन्त्रण पर दर्शन विभाग में संस्कृति के स्वरूप पर मैंने 6 व्याख्यान दिये, जो बाद में मीनिंग एण्ड प्रोसेस ऑव कल्चर नाम से प्रकाशित हुए। व्याख्यानों का टेप से टाइप रूप देने मे डॉ. वैन आल्स्ट की महत्वपूर्ण भूमिका थी। संस्कृति आत्मचेतना की एक वृत्ति है, जिसे मूल्यान्वेषी कह सकते हैं। मूल्य आत्मसत्य का अवभास है जो नाना उपाधियों के माध्यम से नाना भूमियों में व्यक्त होता है। महापुरुषों के प्रातिभदर्शन से मूल्योपलब्धि सांकेतिक रूप में परम्परा का अंग बनती है। मानव चेतना ही मूलत: ऐतिहासिक है, वही एकमात्र सत्ता है जो प्रतिक्षण अनुभव और क्रिया से बनती और बदलती है। समस्त सांस्कृतिक विश्वं इतिहास में पिरोया हुआ है। इस बीच विभाग के कुछ अध्यापकों के उत्साह को देखकर राजस्थान ग्रंथ अकादमी से शल्य जी के निमंत्रण पर इतिहास : स्वरूप और सिद्धान्त नाम से एक ग्रंथ संपादित किया। इसमें भी वैन आल्स्ट, गिरिजा शंकर प्रसाद मिश्र और गुरुदेव सिंह की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। इसमें मैंने स्वयं इतिहास के स्वरूप और पद्धति पर अनेक निबन्ध जोड़े। इनमें एक ओर जहाँ मूल सामग्री के साक्ष्य के परीक्षण को रांके और सीनियोबो की कसौटियों के अनुसार निरूपित किया गया है, वहीं दूसरी ओर अर्थ व्याख्या के स्तर पर हेगेल, क्रोचे और कॉलिंगवुड से मैं प्रभावित था। अब तक यशदेव शल्य जयपुर आकर बस गये थे और उनकी प्रेरणा मुझे निरन्तर दार्शनिक चिन्तन और लेखन में प्रवर्तित करती थी। उन्हीं के दर्शन प्रतिष्ठान' से न्याय बिन्दु और अपोहसिद्धि के व्याख्यायुक्त अनुवाद प्रकाशित हुए। अपोहसिद्धि का एक अनुवाद अंग्रेजी में डॉ. धीरेन्द्र शर्मा ने प्रकाशित किया था किन्तु वह मुझे नहीं झुंचा। मैंने मूल में गुंफित न्याय दर्शन की आपत्तियों को स्पष्ट करते हुए अनुवाद किया और शब्दार्थ विषयक प्राचीन दार्शनिक विवाद के सन्दर्भ पर एक निबन्ध भी उसमें जोड़ दिया। न्याय बिन्दु का सेरवास्की ने प्रमाणिक अनुवाद किया था। किन्तु उन्होंने धर्मोत्तर का अनुसरण करते हुए धर्मकीर्ति की पूर्णतया सौत्रान्तिक व्याख्या की है। मैंने विनीतदेव की विज्ञानवादी व्याख्या को भी प्रामाणिक माना है। इस अन्तराल में एक वर्ष मैंने दर्शन विभाग में बौद्ध दर्शन पर एक विशेष प्रश्न-पत्र भी पढ़ाया। उस अध्यापन में एम. ए. में बौद्ध दर्शन के अध्येताओं की कठिनाईयों को देखकर मैं इन पुस्तकों के प्रणयन की ओर अभिमुख हुआ और शल्य जी के आग्रह से मैंने मूल्य मीमांसा नामक एक विस्तृत पुस्तक लिखी जिसमें मूल्य विषयक प्रत्यक्षवादीआदर्शवादी दोनों ही प्रकार की आधुनिक दृष्टियों का प्रत्याख्यान है। मूल्य विवेक-सम्मत अभीष्ट विषय हैं, जिन्हें संक्षेप में पर्येषीय अर्य कह सकते हैं। व्यावहारिक स्तर पर मूल्य उपयोगितात्मक होते हुए भी इच्छापूर्ति के ही किसी कल्पित और वस्तुत: असम्भव पैमाने से नहीं नापे जा सकते। आदर्श या पारमार्थिक मूल्य अनन्त साधना के लक्ष्य हैं। उनके विषय में औपनिषद महावाक्य ही चरम सिद्धान्त प्रतीत होते हैं : 'आत्मकृतिर्वैशिल्पं', 'आत्मनस्तु कामायसर्व प्रियं' भवित, 'भूमा वै सुखम्' मूल्य मीमांसा के अन्तिम अध्याय में एक प्रत्ययमीमांसा का सूत्रपात है जिसे पूरा करना मेरे लिए शेष है। इस ग्रन्थ पर मौलिक कृति के रूप में भारत सरकार से 10000 रुपयों का नकद पुरस्कार भी दिया गया था।
SR No.022812
Book TitleJignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibha Upadhyaya and Others
PublisherUniversity of Rajasthan
Publication Year2011
Total Pages272
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size11 MB
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