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________________ 86 / Jijnasi पलाशतां विप्रति यातुधाना इवाखिला अप्यनतुगामिनो मे। अमारिरेषां न च रोचते. वचिन्मलिम्लुचानामिव चन्द्रचन्द्रिका।। . शनैः शनैस्तेन मया विमृश्य प्रदास्यमानामथ सर्वथैव। दत्तामिवैतामवयान्तु यूयममारिमन्तर्महतेव कन्या।। हीर. 14. 199, 200 प्राग्वतकदाचिन्मृगयां न जीवहिंसा विधास्ये न पुनर्भवद्वत्। सर्वेऽपि सत्वाः सुखिनो वसन्तु स्वैरं रमन्तां च चरन्तु मबत्।। हीर. 14. 201 अकबर ने कुछ बेहद खूखार कैदियों को वहीं मंगवाया तथा सूरि महराज के चरणों में उनका अवनत शीर्ष प्रणाम कर कर, उनपके समक्ष ही मुक्त करा दिया। शेष की रिहाई बाद में हुई। उसने भरी सभा में मुनि हीरविजय को जगद्गुरू के उपाधि से अलंकृत किया।" जगद्गुरू को उनके अपाश्रय से विदा कर शहंशाह सूरि अपने प्रधान शिष्य धनविजय को साथ ले डाबर तालाब के किनारे आया। वहां पिंजरों में बन्द सारे पक्षियों को, द्वार खोल आकाश में उड़ा दिया। उस वर्ष अर्थात 1583 ई. क चालुमाग्य जगदगुरू ने वहीं व्यतीत किया तदनन्तर वह मथुरा, ग्वालियर होते इलाहाबाद गये 1584 ई. का वर्षाकाल उन्होंने वह बिताया। शीतकाल में वहां से प्रयाण कर मार्ग में विश्राम करते, सदुपदेश देते वह पुन: आगरा आये तथा 1585 ई. का चातुर्मास्य पुनः वहीं व्यतीत किया। अब उन्होंने शहंशाह से गुजरात लौटने की आज्ञा मांगी। जगदगुरु की अनुपस्थिति में उनके पट्टशिष्य शान्निचन्द्रोपाध्याय शहंशाह के ही पास रहे। वह नित्य बादशाह से मिलते, उसनन्यज्ञान देते। जब मान्निचन्द को अनाबर की प्रकृति का पूर्ण विश्वास हो गया तब उन्होंने उसे जगद्गुरू की आकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिये सर्वथा सहमत कर दिया। इसी प्रसन्नता में उन्होंने 128 पद्यों से युक्त कृपारसकोश:'नामक काव्य लिखा, जो शहंशाह के सद्गुणों का प्रकाशन तथा उसके प्रति रचनाकार की अभिप्राय सहित सुनाया था, जिसे सुन कर वह गद्गद हो उठा था। यद्यपि महोपाध्याय शान्तिचन्द्रगणि प्रणीत 'कृपारसकोश' नामक काव्य में न लम्बी पुष्पिका है, न ही रचनाकाल का संकेत। तथापि ग्रन्थ निस्सन्देह 1585 ई. में किसी समय लिखा गया होगा। क्योंकि जगद्गुरू हीरविजय के 1585 ई. गुजरात प्रस्थान के बाद ही, उनकी आजा से शान्तिचन्द्र जी शहंशाह के पास रह गये थे। 119 से 127 संख्यक श्लोक महत्वपूर्ण व्यक्तिगत सूचनाएं देते हैं। इनमें सर्वप्रथम तो कवि तीनों शहजादों को आशीर्वाद देते हुए संकेतित करता है कि शेखू (सलीम) ही अगला राजा होगा।10 फिर वह बताता है कि जब मुझे अकबर के रसिक एवं उदार स्वभाव का पूर्ण विश्वास हो गया तब मैंने उससे मनोऽभिलाष पूर्ण कराने की धृष्टता की (और उसने अनेक फर्मान लिखा कर मेरी इच्छायें पूर्ण की)" शान्तिचन्द्रमणि कहते हैं कि दद्रि अकबर ने जो जीवहिंसा पर पाबन्दी लगा दी, उसकी कृपा से ही जो जाल से छूटी मछलियां पुन: अपने दन्द से मिली, भागती हुई पुन: अपने बाड़े में जा पहुंची, वह सब इसी कृपालुमूर्ति अकबर का कमाल है। जीवों को जीवनसुख देकर, अपनी दयालुता से, शहंशाह ने जो विलक्षण कीर्ति अर्जित की है, इससे वह निरन्तर अभ्युज्यशील हो (यही आशी: है)2 इसी सन्दर्भ में, कवि अकबर की सारी राजाज्ञाओं को सार संक्षेप प्रस्तुत करता है- जजिया कर की माफी, मन्दिरों की मुगल आतंक से मुक्ति, बन्दियों की कारागारों से मुक्ति, गोवध बन्दी, वर्ष में छ: महीने तक जीवहत्यानिषेध, जैनसन्तों तथा अन्य यतीन्द्रों का सत्कार, तथा यह भी कहता है कि अकबर के इन समस्त कार्यों का निमित्त कारण यह (कृपारसकोश) ग्रन्य ही है।13
SR No.022812
Book TitleJignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibha Upadhyaya and Others
PublisherUniversity of Rajasthan
Publication Year2011
Total Pages272
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size11 MB
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