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________________ हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना उपयोग करता है। रहस्यवादी कवियों ने जीव और ब्रह्म के पारस्परिक मिलन और उसकी आनन्दानुभूति का विभिन्न प्रतीकों, रूपकों, उलट-वासियों आदि के रूप में प्रभावकारी वर्णन किया है पर जैन साधना में जीव और ब्रह्म के मिलन की नहीं, वरन् जीव के ही ब्रह्म हो जाने की स्थिति स्वीकार की गयी है। दूसरे शब्दों में जीव अपने विकारों पर विजय प्राप्त कर, समस्त कर्म पुद्गलों की रज हटाकर अपनी आत्मा चेतना को इतना विशुद्ध और निर्मल बना लेता है कि वह स्वयं परमात्मा बन जाता है। तब जीव और ब्रह्म में किंचित् भी अन्तर नहीं रहता। इस दृष्टि से जितने भी जीव हैं, उन सबका ब्रह्म हो जाना संभाव्य है। शर्त है केवल अपने को निर्मल, विशुद्ध और निर्विकारवीतराग बनाना । जैन दर्शन के ईश्वर विषयक इस भिन्न दृष्टिकोण के कारण आलोचकों में जैन रहस्यवाद को लेकर मत - वैभिन्य रहा है और उसे शंका की दृष्टि से देखा है। पर मुझे यह कहते हुए अत्यन्त प्रसन्नता है कि डॉ. श्रीमती पुष्पलता जैन ने इस खतरे को उठाकर अपने इस शोधप्रबन्ध 'मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य में रहस्यभावना' में विभिन्न शंकाओं का सुकर समाधान प्रस्तुत किया है दार्शनिक स्तर पर भी और साहित्यिक स्तर पर भी । श्रीमती पुष्पलता जैन का अध्ययन विस्तृत और गहरा है। उन्होंने व्यापक फलक पर रहस्य चिन्तन और रहस्य भावना का विवेचन विश्लेषण किया है। आठ परिवर्तो में विभाजित अपने शोध प्रबंध में जहाँ एक ओर उन्होंने हिन्दी साहित्य के काल - विभाजन, उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, आदिकालीन एवं मध्यकालीन जैन काव्य प्रवृत्तियों पर प्रकाश डाला है वहाँ दूसरी ओर रहस्यभावना के
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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