SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 391
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन १७० १७१ कबीर के अनुसार जीव और ब्रह्म पृथक् नहीं है। वह तो अपने आपको अविद्या के कारण ब्रह्म से पृथक् मानता है। अविद्या और माया के दूर होने पर जीव और ब्रह्म अद्वैत हो जाते हैं - 'सब घटि अंतरि तू ही व्यापक घटै सरूपै सोई। आत्मज्ञान शाश्वत सुख की प्राप्ति कराने वाला है। सर्वव्यापक है। १२ अविनाशी है, १७३ निराकार और निरंजन है।" सूक्ष्मातिसूक्ष्म तथा ज्योतिस्वरूप है। १७६ इसे आत्मा का परमार्थिक स्वरूप कहते हैं। उसका व्यावहारिक स्वरूप माया अवा अविद्या से आवृत स्थिति में दिखाई देता है। वही संसार में जन्म-मरण का कारण है । सुन्दरदास का भी यही मन्तव्य है । १७७ 375 .१७८ १७९ १८० सूर ने भी ब्रह्म और जीव में कोई अंतर नहीं माना। माया के' कारण ही जीव अपने स्वरूप को विस्मृत हो जाता है - 'आपुन - आपुन ही विसरयौ' । माया के दूर होने पर जीव अपनी विशुद्धावस्था प्राप्त कर लेता है। तुलसी ने भी जीवात्मा को परमात्मा से पृथक् नहीं माना। माया के वशीभूत होकर ही वह अपने यथार्थ स्वरूप को भूल गया । कवि का परमात्मा व्यापक है और वह कबीर आदि के समान केवल निर्गुण नहीं कहा, वह भी सगुण होकर भिन्न-भिन्न अवतार धारण करता है। सगुण-निर्गुण राम की शक्ति का विवेचन इस कथ्य को पुष्ट करता है । ८२ जैन सन्तों ने भी कबीर आदि सन्तों के समान आत्मा के निश्चय और व्यवहार स्वरूप का वर्णन किया है। जैन दर्शन का आत्मा निश्चय नय से शुद्ध, बुद्ध और निराकार है पर व्यवहार नय से वह शरीर प्रमाण आकार ग्रहण करता है, कर्ता और भोक्ता है। आत्मा और शरीर
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy