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________________ हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना ११९ १२१ १२२ ज्ञान से तभी प्रकाशित होती है जब गुरु की प्राप्ति हो जाती है। उनका उपदेश संशयहारक और पथप्रदर्शक रहता है। गुरु के अनुग्रह एवं कृपा दृष्टि से शिष्य का जीवन सफल हो जाता है। सद्गुरु स्वर्णकार की भांति शिष्य के मन से दोष और दुर्गुणों को दूर कर से तप्त स्वर्ण की भांति खरा और निर्मल बना देता है। सूफी कवि जायसी के मन में पीर (गुरु) के प्रति श्रद्धा दृष्टव्य है । वह उनका प्रेम का दीपक है । ' हीरामन तोता स्वयं गुरु रूप है" और संसार को उसने शिष्य बना लिया है। उनका विश्वास है कि गुरु साधक के हृदय में विरह की चिनगारी प्रक्षिप्त कर देता है और सच्चा साधक शिष्य गुरु की दी हुई उस वस्तु को सुलगा देता है। जायसी के भावमूलक रहस्यवाद का प्राणभूततत्त्व प्रेम है और यह प्रेम पीर की महान देन है। पद्मावत के स्तुतिखंड में उन्होंने लिखा है - १२४ १२५ 368 ܘܐ 6 " सैयद असरफ पीर पिराया । जेहि मोहि पंथ दीनह उंजियारा | लेसा हिए प्रेम कर दीया । उठी जौति भा निरमल हीया ।' १२६ सूर की गोपियां तो बिना गुरु के योग सीख ही नहीं सकीं। वे उद्धव से मथुरा ले जाने के लिए कहती हैं जहां जाकर वे गुरु श्याम से योग का पाठ ग्रहण कर सकें। १७ भक्ति-धर्म में सूर न गुरु की आवश्यकता अनिवार्य बतलाई है और उसका उच्च स्थान माना है। सद्गुरु का उपदेश ही हृदय में धारण करना चाहिए क्योंकि वह सकल भ्रम का नाशक होता है - "सद्गुरु को उपदेश हृदय धरि, जिन भ्रम सकल निवारयौ ।। १२८ सूर गुरु महिमा का प्रतिपादन करते हुए करते हैं कि हरि और गुरु एक ही स्वरूप है और गुरु के प्रसन्न होने से हरि प्रसन्न होते हैं। गुरु
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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