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________________ 366 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना कुल के आचार को विचारै सोई जानै धर्म, कंद मूल खाये पुण्य पप के करम में ।। मूंड के मुंडाये गति देहके दगाये गति, रातन के खाये गीत मानत धरम में । शस्त्र के धरैया देव शास्त्र कौ न जानै भेद, ऐसे हैं अबेन अरु मानत परम में । " १०७ १०८ जैनधर्म के अनुसार क्रियाविहीन ज्ञान व्यर्थ है और ज्ञान विहीन क्रिया भी । नगर से आग लगने पर पंगु तो देखता - देवता जल गया और अंधा दौड़ता - दौड़ता । पीताम्बर ने इसीलिए कहा है भेषधार कहै भैया भेष ही में भगवान, भेष में न भगवान, भगवान न भाव में" । इस सन्दर्भ में प्रस्तुत प्रबन्ध के चतुर्थ परिवर्त में बाह्याडम्बर के प्रकरण में संकलित और भी अनेक पद देखे जा सकते हैं जिसमें बाह्याचार की कटु आलोचना की गई है। - जैन साधकों एवं कवियों के साहित्य का विस्तृत परिचय न होने के कारण कुछ आलोचकों ने मात्र कबीर साहित्य"" को देखकर उनमें ही बाह्याडम्बर के खंडन की प्रवृत्ति को स्वीकारा है जबकि उनके ही समान बाह्याचार का खंडन और आलोचना जैन साधक "" बहुत पहले कर चुके थे अतः सन्दर्भ में कबीर के बारे में ही मिथ्या आरोप लगाना उपयुक्त नहीं। उपर्युक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि जैन और जैनेतर दोनों साधक कवियों ने बाह्याचार की अपेक्षा आन्तरिक शुद्धि पर अधिक बल दिया है। अन्तर इतना ही है कि जैनेतर साधक भक्त थे अतः उन्होंने भक्ति के नाम-स्मरण पर अधिक जोर दिया जबकि जैन साधकों ने आत्मा के ही परमात्मतत्त्व को अन्तर में धारण करने की बात कही है।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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