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________________ रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन 363 मन सो जोधा जगत में, और दूसरो नाहिं ।। ताहि पछारै सो सुभट, जीत लहै जग माहिं ।।१३।। मन इन्द्रिय को भूप है, ताहि करे जी जौ जेर ।। सौ सुख पावे मुक्ति के, या में कछू न फेर ।।१४।। जत तन मूंद्यो ध्यान में, इंद्रिय भई निराश ।। तब इह आतम ब्रह्म ने, कीने निज परकाश ।।१५।। कबीर के समान जगतराम भी मन की माया के वश मानते हैं और उसे अनर्थ का कारण कहते हैं। जैन कवि ब्रह्मदीप ने मन को करम संबोधन करके उसे भव-वन में विचरण न करने को कहा है क्योंकि वहां अनेक विष बेलें लगी हुई है जिनको खाने से बहुत कष्ट होगा - मन करहा भव बनिमा चरइ, तदि विष बेल्लरी बहुत । तहूं चरंतहं बहु दुखु पाइयउ, तब जानहि गौ मीत ।। ५. बाह्याडम्बर साधना के आन्तरिक और बाह्य स्वरूपों में से कभी कभी साधकों ने बाह्याडम्बरों की ओर विशेष ध्यान दिया। ऐसी स्थिति में ज्ञानाराधना की अपेक्षा क्रियाकाण्ड अथवा कर्मकाण्ड की लोकप्रियता अधिक हुई। परन्तु वह साधना का वास्तविक स्वरूप नहीं था। जिन साधकों ने उसके वास्तविक स्वरूप को समझा उन्होंने मुण्डन, तीर्थस्थान, यज्ञ, पूजा, आदि बाह्य क्रियाकाण्डों का घनघोर विरोध किया। यह क्रियाकांड साधारणतः वैदिक संस्कृति का अंग बन चुका था। जैनाचार्य योगीन्दु ने ज्ञान के बिना तीर्थस्थान को बिल्कुल
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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