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________________ 355 रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन लपटि झपटि के तिरिया रोवै हंस अकेला जाई । चार गजी चरगजी मंगाया चढ़ा काठ की घोड़ी। चारों कोने आग लगाया फूंक दियो जस होरी । हाड़ जरै जसलाह कड़ी को केस जरै जस घासा। सोना ऐसी काया जरि गई कोई न आयोपासा।। कविवर द्यानतराय ने भी इन सांसारिक सम्बन्धों को इसी प्रकार मिथ्या और झूठा माना है। अज्ञानी जीव उनको मेरा-मेरा कहकर आत्मज्ञान से दूर रहता है - मिथ्या यह संसार है रे, झूठा यह संसार है ।। जो देही बह रस सों पोषै, सो नहि संग चलै ओ, औरन को तौहि कौन भरोसौ, नाहक मोह करै ।। सुख की बातें बूझै नाहीं, दुख कौं सुख लेखें रे। मूढौ मांही माता डोलै, साधौ नाल डरै । झूठ कमाता झूठी खाता झूठी आप जपै औ। सच्छा साई सूझै नाहीं, क्यों कर पार लगै औ।। जम सौं डरता फूला फिरता, करता मैं मैं मैरे। द्यानत स्यात सोई जाना, जोजप तप ध्यान धरैरै।।" ३. मिथ्यात्व, मोह और माया जब से दर्शन की उत्पत्ति हुई है तभी से मिथ्यात्व, मोह और माया का सम्बन्ध उसके साथ जुड़ा हुआ है। ऋग्वेद में 'माया' शब्द का प्रयोग विशेष रूप से वेश बदलने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।“उपनिषद काल में इसने दर्शन का रूप ग्रहण किया और इसे परमात्मा की सृजन का प्रतीक कहा गया। संसारी आत्मा इसी माया से आबद्ध बनी रहती है। जैनधर्म इसे मिथ्यात्व, मोह और कर्म कहता है जिसके कारण जीव संसार भ्रमण करता रहता है। बौद्धों ने भी इसे इन्हीं शब्दों के
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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