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________________ रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियाँ 319 दिन बीते नांव अनेक धराये।। व नवलराम ‘प्रभु चूक तकसीर मेरी माफ करिये' कहकर मिथ्यात्व क्रोध-मान माया लोभ इत्यादि विकार भावों के कारण किये गये कर्मो की भर्त्सना करते हैं और आराध्य से भवसागर पार कराने की प्रार्थना करते हैं - “प्रभु चूक तकसीर मेरी माफ करिये।" साधक पश्चात्ताप के साथ भक्ति के वश आराध्य को उपालम्भ देता है कि 'जो तुम दीनदयाल कहावत। हमसे अनाथनि हीन दीन कू काहे न नाथ निवाजत।।' प्रभु, तुम्हें अनेक विधानों से घिरे सेवक के प्रति मौन धारण नहीं करना चाहिए। तुम विघनहारक, कृपा सिन्धु जेसे विरुदों को धारण करते हो तब उनका पूरा निर्वाह करना चाहिए। द्यानतराय उपालम्भ देते हुए कुछ मुखर हो उठते हैं। और कह देते हैं कि आप स्वंय तो मुक्ति में जाकर बैठ गये पर मैं अभी भी संसार में भटक रहा हूं। तुम्हारा नाम हमेशा मैं जपता हूं पर मुझे उससे कुछ मिलता नहीं। और कुछ नहीं, तो कम से कम राग-द्वेष को तो दूर कर ही दीजिए - तुम मैं प्रभु कहियत दीनदयाल । आपन जाय मुकति में बैठे, हम जुरुलत जग जाल ।।१।। तुमरो नाम जपें हम नीके, मनवच तीनों काल । तुम तो हमके कछु देत नहिं, हमरो कौन हवाल ।।२।। बुरे भले हम भगत तिहारे, जानत हो हम चाल । और कछु नहिं यह चाहत हैं, राग-दोष को टाल ।।३।। हम सौं चूक परी सो वकसो, तुम तो कृपा विशल । द्यानत एक बार प्रभु जगरौं, हमको लेहु निकाल ।।४।।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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