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________________ रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियाँ 'प्रपत्ति' का तात्पर्य है अनन्य शरणागत होने अथवा आत्मसमर्पण करने की भावना । भगवद् गीता में 'शिष्यस्तेहं शाधिमां त्वं प्रपन्नम् " कहकर इसे और अधिक स्पष्ट कर दिया है। नवधा भक्ति का भी मूल उत्स प्रपत्ति है। अतः हमने यहां 'प्रपत्ति' शब्द को विशेष रूप से चुना है। भागवत्पुराण की नवधा भक्ति के ९ लक्षण माने गये हैं श्रवण, कीर्त्तन, स्मरण, पादसेवन ( शरण) अर्चना, वन्दना दास्यभाव, सख्यभाव और आत्म निवेदन । कविवर बनारसीदास ने इसमें कुछ अंतर किया है। ये तत्त्व हीनाधिक रूप से सगुण और निर्गुण, दोनों प्रकार की भक्ति साधनाओं में उपलब्ध होते हैं। भक्ति के साधनों में कृपा, रागात्मक सम्बन्ध, वैराग्य ज्ञान और सत्संग प्रमुख हैं। प्रपत्ति में इन साधनों का उपयोग होता है। पांचरात्र लक्ष्मी संहिता में प्रपत्ति की षड्विधायें दी गई हैं - आनुकूल्य का संकल्प, प्रातिकूल्य का विसर्जन, संरक्षण, एतद्रूप विश्वास गोप्तृत्व रूप में वरण, आत्मनिक्षेप और कार्पण्य भाव । प्रपत्तिभाव के अतिरिक्त नारद भक्तिसूत्र में साध्य रूपा प्रेमाभक्ति की ग्यारह आसक्तियां बतायी हैं' गुणमाहात्म्यासक्ति, रूपासक्ति, दास्यासक्ति, सख्यासक्ति, पूजासक्ति, स्मरणसक्ति, कान्त्यासक्ति, वात्सल्यासक्ति, आत्मनिवेदनासक्ति, तन्मयासक्ति, और परमविरहासक्ति । दास्यासक्ति में विनयभाव का समावेश है । विनय के अन्तर्गत दीनता मानमर्षता, भयदर्शना, भर्त्सना, मनोराज्य और विचारण ये सात तत्त्व आते हैं। पश्चात्ताप, उपालम्भ आदि भाव भी प्रपत्ति मार्ग में सम्मिलित हैं । लगभग ये सभी भाव भक्ति साधना में दृष्टिगोचार होते है । - - 299 जैन साधना में भक्ति का स्थान मुक्ति के लिए सोपानवत् माना गया है। भगवद् भक्ति का तात्पर्य है - अपने इष्टदेव में अनुराग
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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