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________________ हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना इस प्रकार जैन-साधक रहस्य - साधना के साधक तत्त्वों पर स्वानुभूतिपूर्वक चलने का उपक्रम करता है। वह सद्गुरु अथवा स्वाध्याय के माध्यम से संसार की क्षणभंगुरता तथा अनित्यशीलता पर गम्भीर चिन्तन कर शनैः-शनैः सम्यक्त्व के सोपान पर चढ़ जाता है । साधनात्मक रहस्य भावना की प्रवृत्तियों के जन्म तथा उनकी सांगोपांगता पर विचार करने के साथ ही इन प्रवृत्तियों में सहज-योग साधना तथा समरसता के भाव जाग्रत होते हैं। साधक इन्हीं भावनाओं के आधार पर स्वात्मा के उत्तर विकास पर पहुंचने का मार्ग प्रशस्त कर लेता है। 296 यह स्मरणीय है कि जैनाचार्यो ने श्रृंगार को रसराज न मानकर शान्त को रसराज माना है। उनकी दृष्टि में अनिर्वचनीय आनन्द की यथार्थ अनुभूति रागद्वेषादिक मनोविकारों के उपशम होने पर ही हो पाती है। आठों रसों के स्थायी भाव रागद्वेष से संबद्ध हैं। उनसे उत्पन्न होने वाले आनन्द में वह स्थायित्व और गहरापन नहीं है जो शान्तरस में पाया जाता है। इसलिए बनारसीदास ने 'नवमों सान्त रसनिकौ नायक कहकर रहस्य साधना में उसकी प्रतिष्ठा की है (नाटक समयसार, १०.१३३)। सभी जैनाचार्यों ने रागद्वेषों से विमुख होकर वीतराग पथ पर बढ़ने को ही शान्ति कहा है। उसे प्राप्त करने के लिए दो ही उपाय हैं - तत्त्वचिन्तन और वीतरागियों की भक्ति । वीतराग भक्ति से मन रागद्वेषादि विकारों से हटकर आत्मशोधन की ओर मुडता है, प्रमाद परिष्कृत होता है, निर्मल आत्मा की अनुभूति होती है और केवलज्ञान उत्पन्न होने पर अन्त में पूर्ण आत्मानुभूति हो जाती है ।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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