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________________ 291 रहस्यभावना के साधक तत्त्व का समन्वित रूप है। इन तीनों की प्राप्ति ही मुक्ति का मार्ग है। यह मार्ग भेदविज्ञान के द्वारा प्राप्त होता है। भेदविज्ञान को ही सम्यग्ज्ञान कहा गया है। सम्यग्ज्ञानी वही है जिसे आत्मा का यथार्थ ज्ञान हो, परमार्थ से सही प्रेम हो, सत्यवादी और निर्विरोधी हो, पर पदार्थों में आसक्ति न हो, अपने ही हृदय में आत्म हित की सिद्धि, आत्मशक्ति की ऋद्धि और आत्मगुणों की वृद्धि प्रगट दिखती हो तथा आत्मीय सुख से आनंदित हो।८ इसी से आत्मस्वरूप की पहिचान होती है और साधक समझ लेता है - 'अब ग्यान कला जागी भरम की दृष्टि भागी' अपनी परायी सब सौंज पहिचानी है ।१२९ सम्यग्ज्ञानी इन्दियजनित सुख-दुःख से अभिरुचि हटाकर शुद्धात्मा का अनुभव करता है तथा दर्शन-ज्ञान-चरित्र को ग्रहण कर आत्मा की आराधना करता है। ज्ञान रूपी दीपक से उसका मोह रूपी महान्धकार नष्ट हो जाता है। उस दीपक में किंचित् भी धुंआ नहीं रहता, हवा के झकोरों से बुझता नहीं, एक क्षण भर में कर्मपतंगों को जला देता है, बत्ती का भोग नहीं, घृत तेलादि की भी आवश्यकता नहीं, आँच नहीं, राग की लालिमा नहीं। उसमें तो समता, समाधि और योग प्रकाशित रहते हैं, निःशंकित, निकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ अंग जाग्रत हो जाते हैं। कुल जाति, रूप, ज्ञान, धन, तप, प्रभुता, ये आठ मद दूर हो जाते हैं, कुगुरु, कुदेव, कुधर्म, कुगुरु सेवक, कुदेवसेवक और कुधर्मसेवक, ये छह अनायतन, कुगुरुसेवा, कुदेवसेवा और कुधर्मसेवा ये तीन मूढतायें सम्यक्त्वी के दूर हो जाती हैं।१४२
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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