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________________ रहस्यभावना के साधक तत्त्व 271 साधक आत्मसम्बोधन के माध्यम से अपने कृत कर्मों पर पश्चात्ताप करता है जिसे रहस्य भावना की एक विशिष्ट सीढ़ी कही जा सकती है। उसकी यही मानसिक जागरूकता उसे साधना-पथ से विमुख नहीं होने देती। चित्त विशुद्ध हो जाने से सांसारिक आसक्ति कोसों दूर हो जाती है । फलतः वह आत्मचिन्तन में अधिक सघनता के साथ जूट जाता है। ३. आत्मचिन्तन जैन दर्शन में सप्त तत्त्वों में जीव अथवा आत्मा को सर्व प्रमुख स्थान दिया गया है। वहां जीव के दो स्वरूपों का वर्णन मिलता है - संसारी और मुक्त। संसार की भिन्न-भिन्न पर्यायों में भ्रमण करने वाला सकर्म जीव संसारी कहलाता है और जब वह अपने कर्मों से विमुक्त हो जाता है तो उसे मुक्त कहा जाता है। जीव की इन दोनों पर्यायों को क्रमशः आत्मा और परमात्मा भी कहा गया है। सामान्यतः जीव के लिए चिदानन्द, चेतन, अलक्ष, जीव, समयसार, बुद्धरूप, अबद्ध, उपयोगी, चिद्रूप, स्वयंभू, चिन्मूर्ति, धर्मवन्त, प्राणवन्त, प्राणी, जन्तु, भूत, भवभोगी, गुणधारी, कुलाधारी, भेषधारी, अंगधारी, संगधारी, योगधारी, योगी, चिन्मय, अखण्ड, हंस, अक्षर, आत्मराम, कर्म कर्ता, परमवियोगी आदि नामों का प्रयोग किया जाता है और परमात्मा के लिए परमपुरुष, परमेश्वर, परमज्योति, परब्रह्म, पूर्ण, परम, प्रधान, अनादि, अनन्त, अव्यक्त, अविनाशी, अज, निर्द्वन्द, मुक्त, मुकुन्द, अम्लान, निराबाध, निगम, निरंजन, निर्विकार, निराकार, संसार-शिरोमणि, सुज्ञान, सर्वदर्शी, सर्वज्ञ, सिद्ध, स्वामी शिव, धनी, नाथ, ईश, जगदीश, भगवान आदि नाम दिये जाते हैं।६८
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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