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________________ 265 रहस्यभावना के साधक तत्त्व असम्भव है। रे भौंदू, ये चर्म चक्षुएं तो पौद्गलिक हैं, पर तूं तो पुद्गल नहीं। ये आखें पराधीन हैं। बिना प्रकाश के वे पदार्थ को देख नहीं सकतीं। अतः ऐसी आंखे प्राप्त करने का प्रयत्न करोजो किसी पर निर्भर न रहें - भौंदू भाई ! समुझ शब्द यह मेरा, जो तू देखे इन आंखिनसौं तामें कछु न तेरा। भौंदू०।।१।। पराधीन बल इन आंखिन को, विनु प्रकाश न सूझै । सो परकाश अगति रवि शशि को, तू अपनों कर बूझे ।। ___भौंदू ।।५।। वास्तविक आखें तो 'हिये की आखें हैं। रे भौंदू, तुम उन्हीं हिये की आंखों से देखो जिनसे किसी प्रकार का भ्रम उत्पन्न नहीं होता। उनसे अमृत रस की वर्षा होती है। वे केवलज्ञानी की वाणी को परख सकती है। उन आंखों से परमार्थ देखा जाता है जिससे प्राणी कृतार्थ हो जाता है। यही केवली की व्यवस्था है जहां कर्मो का लेष नहीं रहता। उन आंखों के मिलते ही अलख निरंजन जाग जाता है, मुनि ध्यान धारणा करता है । संसार के अन्य सभी कार्य मिथ्या लगने लगते हैं, विषय विकार नष्ट होकर शिव-सुख प्राप्त होता है, समता रस प्रकट होता है, निर्विकल्पावस्था में जीव रमण करने लगता है।५२ बनारसीदास कहते हैं - "वा दिन को कर सोच जिय ! मन में, वा दिन।।" हे मूढ़ प्राणी जिस दिन आंधी चलेगी उसमें तुम्हें व तुम्हारे परिवार को एवं सम्पत्ति को बह जाना पड़ेगा इसलिए तू इन सब में चित्त मत लगा और निर्वाण प्राप्ति का मार्ग ग्रहण कर।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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