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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना वासनाओं को असली सुख मानकर उसी में उलझ जाता है, कभी शरीर से ममत्व रखने के कारण उसी की चिन्ता में लीन रहता है, कभी कर्मो के आश्रव आने और शुभ-अशुभ कर्मजाल में फँसने के कारण आत्मकल्याण नहीं करता, कभी मिथ्यात्व, माया-मोह आदि के आवरण में लिप्त रहता है, कभी बाह्याडम्बरों को ही परमार्थ का साधन मानकर उन्हीं क्रिया-काण्डों में प्रवृत्त रहता है और कभी मन की चंचलता के फलस्वरूप उसका साधना रूपी जहाज डगमगाने लगता है जिससे रहस्य साधना का पथ ओझल हो जाता है। कभी वह अष्टादश दोषों से प्रपीड़ित और आकुलित रहता है, कभी राग-द्वेष से अधिकाधिक प्रेम करने के कारण परमात्म स्वरूप के दर्शनों का आनन्द नहीं ले पाता। मोह प्राबल्य के कारण चिदानन्द के सुख से दूर बना रहता है। संसारी जीव का भोगासक्त मन वीतरागता की ओर आकर्षित नहीं हो पाता, निजनाथ निरंजन के सुमिरन करने में वह दुविधा ग्रस्त बना रहता है । अक्षय पद रूपी धन की बूंदे चखने का उसे सौभाग्य ही नहीं मिल पाता, सद्गुरु के वचनों के प्रति दृढ श्रद्धा उत्पन्न नहीं हो पाती, हृदय में समता भाव जाग्रत नहीं हो पाता। फलतः संसार का संसरण बढता ही चला जाता है और मुक्ति पथ का महाद्वार खुल नहीं पाता।