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________________ रहस्यभावना के बाधक तत्त्व 225 मिथ्यात्व के उदय से विषय भोगों की और मन दौडता है। वे सुहावने लगते हैं। राग के बिना भोग काले नाम के समान प्रतीत होते हैं। राग से ही समूचे शरीर का संवर्धन होता है और समूचे मिथ्या संसार को सम्यक् मानने लगता है। इसलिए कविवर भूधरदास ने रागी और विरागी के बीच अन्तर स्पष्ट करते हुए लिखा है कि यह अन्तर वैसे ही है जैसे बैगन किसी को पथ्य होता है और किसी को वायुवर्धक होता है। मिथ्याज्ञानी स्वयं को चतुर और दूसरे को मूढ मानता है। सांयकाल को प्रातःकाल मानता है, शरीर को ही सच कुछ मानकर अन्धेरे में बना रहता है। कविवर भावुक होकर इसीलिए कह उठते हैं कि रे अज्ञानी, पाप धतूरा मत बो । उसके फल मृत्युवाहक होंगे। किंचित् भौतिक सुख प्राप्ति की लालसा में तू अपना यह नरजन्म क्यों व्यर्थ खोता है ? इस समय तो धर्म कल्पवृक्ष का सिंचन करना चाहिए। यदि तुम विष बोते हो तो तुमसे अभागा और कौन हो सकता है ? संसार में सबसे अधिक दुःखदायक फल इसी वृक्ष के होते हैं, अतः भोंदु मत बन। अज्ञानी पाप धतूरा न बोय। फल चाखन की वार भरे द्रग, मरहै मूरख रोय।। वख्तराम का चेतन भी ऐसा ही भोंदु बन गया। वह सब कुछ भूलकर मिथ्या संसार को ययार्थ मानकर बैठ गया। धर्म क्या है, यह मिथ्याज्ञानी समझ नहीं पाता। अहर्निश विषय भोगों में रमता है और उसी को सुकृत मानता है। देव, कुदेव, धर्म, कुसाधु आदि में उसे कोई अन्तर नहीं दिखाई देता । मोह की निद्रा में वह अनादिकाल से सो रहा है। राग द्वेष के साथ मिथ्यात्व के रंग में रच गया है, विषयवासना में फंस गया है।" चेतन कर्म चरित्र में भैया भगवतीदास ने इसकी बडी सुन्दर मीमांसा की है। मिथ्यात्व विध्वंसन चतुर्दशी में उन्होंने मिथ्यात्व को स्पष्ट किया है । मिथ्यात्व के कारण ही अनादिकाल से
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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