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________________ रहस्य भावना एक विश्लेषण 181 बहिर्मुखी दोनों होती हैं। अन्तर्मुखी साधना में साधक अशुद्धात्मा के मूल स्वरूप विशुद्धात्मा को प्रियतम अथवा प्रियतमा के रूप में स्वीकारकर उसे योगादि के माध्यम से खोजने का प्रयत्न करता है तथा बहिर्मुखी साधना में विविध आध्यात्मिक तथ्यों को स्पष्ट करने का प्रयत्न करता है। जैन साधना में ये दोनों प्रकार की साधनायें उपलब्ध होती हैं। वस्तुतः कोई भी रहस्यभावना भावनात्मक और साधनात्क क्षेत्र से बाहर नहीं जा सकती। रहस्य भावना का सम्बन्ध चरम तत्त्व को प्राप्त करने से रहा है और चरम तत्त्व कासम्बन्ध किसी एक धर्म अथवा योग साधना विशेष से रहना सम्भव नहीं। इसलिए रहस्यभावना की पृष्ठभूमि में साधक की जिज्ञासा और उसका आचरित सम्प्रदाय विशेष महत्त्व रखता है। सम्प्रदायों और उनके आचारों का वैभिन्य सम्भवतः विचारों और साधनाओं में वैविध्य स्थापित कर देता है। इसलिए साधारण तौर पर आज जो वह मान्यता है कि रहस्यवाद का सम्बन्ध भरतीय साधनाओं में मात्र वैदिक साधना से ही है, भ्रम मात्र है। प्रत्येक सम्प्रदाय का साधक अपने किसी न किसी आप्त पुरुष में अद्वैत तत्त्व की स्थापना करने की दृष्टि से उनके ही द्वारा निर्दिष्ट पथ का अनुगमन करता है और अलौकिक स्वसंवेद्य अनुभवों को प्रतीक आदि माध्यम से अभिव्यक्त करने का प्रयत्न करता है। यही कारण है कि आधुनिक रहस्यवाद की परिभाषा में भी मत वैभिन्य देखा जाता है। इसके बावजूद अधिकांश साधनाओं में इतनी समानता दिखाई देती है कि जैसे वे हीनाधिक रूप से किसी एक ही सम्प्रदाय से सम्बद्ध हों। यह अस्वाभाविक भी नहीं, क्योंकि प्रत्येक साधक का लक्ष्य उस अदृष्ट शक्ति विशेष की आत्मसात करना है। उसकी प्राप्ति के लिए
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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