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________________ 102 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना कोई भी रीतिकालीन हिन्दी काव्य देखने में नही आया। यही कारण है कि प्राकृत काव्यों को अलंकार-शास्त्रियों ने काफी उद्धृत किया है। पालि में कोई उद्धरण उन्हें इसीलिए नहीं मिल पाया क्योंकि प्राकृत जैसा वैविध्य वहाँ नहीं था। इसी तरह के अन्य प्राकृत काव्यों में विल्हण कृत चौर पंचासिकाय, गोवर्धन कृत आर्या सप्तसती, क्षेमेन्द्र कृत घटकर्पूर तथा नेमिदूतम् और रहमाण कृत संदेसरासक विशेष उल्लेखनीय हैं। अन्य कंगार परक रचनाओं में जयवल्लभ कृत वज्जालग्गं प्रमुख है। इस काल की कवियत्रियों में विजया करनाटी, शील भट्टिका और मारूला मोतिका के नाम भी छन्दल ग्रंथों में उल्लखित हुए हैं। जयदेव और विद्यापति भी प्राकृत और अपभ्रंश मुक्तक परम्परा के ऋणी हैं। प्राकृत गीतिकाव्य के साथ उसके प्रमुख छन्द गाहा की बात किये बिना मुक्तक काव्य परम्परा की बात अधूरी रह जायेगी। गाथा वस्तुतः गीति है जिसका सम्बन्ध मंत्रगान और लोकगीत से रहा है। सामवेद में उसके प्राचीन तत्त्व दृष्टव्य हैं। वैदिकयुग में यह मात्रिक छन्द था (शतपथ ब्राह्मण, ११.५.७)। बाद में उसने अनुष्टुप जैसे वार्णिक छन्द का स्थान ले लिया। डॉ. हरिराम आचार्य ने इसे द्रविड संपर्क का प्रभाव बताया और इसे मात्रिक गेयपद माना। बाद में नाट्य परम्परा में ध्रुवा गीतियों या प्राकृत गीतियों में इसी छन्द का और प्राकृत भाषा का प्रचलन रहा। भरतमुनि ने ऋचा, पाणिका, गाथा और सप्तगीत को ध्रुवा संज्ञा दी है (३२.२)। यह गाथा वस्तुतः संस्कृत आर्या का रूप है। ध्रुवागीति ही ध्रुवपद हो गया। इनके अनेक भेद-प्रभेदों का वर्णन उत्तरकाल में होता रहा है।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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