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________________ सुदर्शन और मनोरमाके भव / [57 पञ्चास्तिकायके जाननेवाले और पाँचवीं सिद्धगतिका ध्यान करनेवाले थे। पाँचों परमेष्ठियोंकी सेवा करनेवाले और पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंके चातक थे। छहों द्रव्योंके स्वरूपको अच्छे जाननेवाले और छहों प्रकारके जीवोंकी रक्षा करनेवाले थे। मुनियोंके सामायिकादि छह आवश्यक हैं, उनके करनेवाले और छहों अनायतन-कुदेव-कुगुरुकुधर्मकी सेवा और उनके माननेवालोंकी प्रशंसा, इन-से रहित थे / सातों तत्वोंके स्वरूपके जाननेवाले और सातों भयोंसे रहित थे / सातवें गुणस्थानके धारी और सातों ऋद्धियोंको प्राप्त करनेवाले थे / आठ कर्मरूपी शत्रुओंके घातक और सिद्धोंके आठ गुणोंके चाहनेवाले थे, आठवीं पृथ्वी-मोक्षके मार्गमें स्थित थे / नौ पदार्थोके सार-मतलबको जाननेवाले और ब्रह्मचर्यकी नौ बाढ़दोषोंसे रहित थे / उत्तमक्षमा आदि दस धर्मोके पालनेवाले और दस प्रकारके ध्यानमें अपने मनको लगानेवाले थे। ग्यारह प्रतिमाओंका श्रावकोंको उपदेश करनेवाले और बारह प्रकार तपके करनेवाले महान् साधु थे। तेरह प्रकार चारित्रके पालनेवाले और चौदह गुणस्थान, चौदह जीव समासोंके जाननेवाले थे। पन्द्रह प्रकारके प्रमाद रहित और सोलहकारणभावनाओंके भानेवाले थे। हृदयके व बड़े पवित्र थे। निम्पृह थे। वनवासी थे। भव्यजनोंका हित करनेके लिए वे सदा तत्पर रहते थे। उनके चस्णकमलोंकी सब पूनम करते थे-उन्हें सब मानते थे। इन गुणोंके सिवा उनमें और भी अनन्त गुण थे। शीलके वे समुद्र थे, परम धीरजवान् थे और ठंडसे जैसे वृक्ष जलकर विवर्ण हो जाता है वैसे ही वेहो रहे थे। उन परम तपस्वी योगिराजको
SR No.022755
Book TitleSudarshan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kashliwal
PublisherHindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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