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________________ सुदर्शन-चरित। मैं मोक्ष-सुखकी प्राप्तिके लिए इसी समयसे ही चार प्रकारके आहारका त्याग करता हूँ और पूर्व पुण्यसे यदि इस समय मेरी रक्षा हो जाय तो मैं फिर जिनदीक्षा लेकर ही भोजन करूँगा / इसलिए हे महाराज, अब तो परम सुखका कारण जिनदीक्षा ही मैं ग्रहण करूँगा / मुझे तो उस मोक्षके राज्यका लोभ है / फिर मैं आपके इस क्षणस्थायी राज्यको लेकर क्या करूँगा ? इस प्रकार सन्तोषजनक उत्तर देकर सुदर्शन, राजा वगैरहके मना करनेपर भी जिनमन्दिर पहुँचा। उसके साथ राजा वगैरह भी गये / वहाँ उसने विघ्नोंकी नाश करनेवाली और सब प्रकारका सुख देनेवाली रत्नमयी जिन प्रतिमाओंकी बड़ी भक्तिसे पूजा-वन्दना की। इसके बाद वह तीन ज्ञानके धारी और संसारका हित करनेवाले विमलवाहन मुनिराजको भक्तिपूर्वक नमस्कार कर अपना मन शान्त करनेके लिए उनसे धर्मोपदेश सुननेको बैठ गया। उसके साथ राजा आदि भी बैठ गये। मुनिराजने उसे धर्मामृतका प्यासा-धर्मोपदेश सुननेको उस्कण्ठित देखकर धर्मवृद्धि दी और इस प्रकार धर्मोपदेश करना शुरू किया-सुदर्शन, तू बुद्धिमान् है और इसीलिए मैं तुझे मोक्षसुख देनेवाले जिस मुनिधर्मका उपदेश करूँ, उसका स्वरूप समझकर तू उसे ग्रहण कर / उस धर्मकी कल्पवृक्षके साथ तुलना कर मैं तुझे खुलासा समझा देता हूँ। जरा ध्यानसे सुन / इस धर्मसे तेरे सत्र उपद्रव-कष्ट नष्ट होंगे और शिव-सुन्दरीकी तुझे प्राप्ति होगी। इसमें किसी तरहका सन्देह नहीं है।
SR No.022755
Book TitleSudarshan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kashliwal
PublisherHindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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