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________________ सुदर्शन संकटमें । २९ ] उस पापिनीने तब निर्लज्ज होकर रानीसे बड़े निन्दित शब्दोंमें, जो स्त्रियोंके बोलने लायक नहीं और दुर्गतिमें लेजानेवाले थे, कहारानीजी, मैं तो मूर्ख ब्राह्मणी ठहरी सो उसने जैसा कहा वही ठीक मान लिया। पर आप तो क्या सुन्दरता में और क्या ऐश्वर्यमें, सब तरह योग्य हैं, इसलिए मैं आपसे कहती हूँ कि आपकी यह जवानी, यह सौभाग्य तभी सफल है जब कि आप उस दिव्यरूप धारीके साथ सुख भोगें- ऐशो आराम करें। रानी अभयमती पहलेही तो सुदर्शनपर मोहित और उसपर कपिलाकी यह कुत्सित प्रेरणा, तब वह क्यों न इस काममें आगे बढ़े। उसने उसी समय अपने सतीत्व धर्मको जलाञ्जलि देकर कहा-प्रतिज्ञा की--" मैं या तो सुदर्शन के साथ सुख ही भोगूँगी और यदि ऐसा योग न मिला तो उन उपायोंके करनेमें ही मैं अपनी जिन्दगी पूरी कर दूँगी, जो सुदर्शनके शील - धर्मको नष्ट करनेमें कारण होंगे ।" इस प्रकार अभिमान के साथ प्रतिज्ञा कर वह कुल-कलंकिनी वन-विहार के लिए आगे बढ़ी । उपवन में पहुँच कर उसने थोड़ी-बहुत जल - के लि की सही, पर उसका मन तो सुदर्शन के लिए तड़फ रहा था; सो उसे वहाँ कुछ अच्छा न लगा । वह चिन्तातुर होकर अपने महल लौट आई । यहाँ भी उसकी वही दशा रही - कामने उसकी विलता और भी बढ़ा दी। वह तब अपनी सेजपर औंधा मुँह पड़ रही । उसकी यह दशा देखकर उसकी धायने उससे पूछा- बेटी, आज ऐसी तुझे क्या चिन्ता होगई जिससे तुझे चैन नहीं है । अभयमतीने बड़े कष्टसे उससे कहा - मा, मैं जिस निर्ल -
SR No.022755
Book TitleSudarshan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kashliwal
PublisherHindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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