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________________ ४० ] प्रभंजन-चरित । योग्य सुखोंकी प्राप्ति होती है। इस पंचमीव्रतके उपवाससे जो कुछ भी अभीष्ट हो वह सभी सिद्धिको प्राप्त हो जाता है-हाथमें आ जाता है । अब और बढ़ाकर कहनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। जिनेन्द्रदेवने पंचमीव्रतके तीन भेद बताए हैं-जघन्य, मध्यम, और उत्कृष्ट । जघन्यका काल पाँच माह, मध्यमका काल पाँच वर्ष, और उत्कृष्टका काल पाँच वर्ष और पाँच महीना है। इस प्रकार मुनिके वचनोंको सुनकर श्रीने जघन्य पंचमीव्रतको ग्रहण किया और हर्षित होती हुई अपने घरको चली आई । सच है कि इष्ट-लाभसे जीवोंको हर्ष होता ही है। वहाँ उसकी माता और बहिनने भी उसके कहे अनुसार व्रत ग्रहण कर लिया और तीनों ही सन्तुष्ट होती हुई भले प्रकार व्रतको करने लग गई और मरणकर पंचमीव्रतके प्रभावसे मनुष्य गतिको प्राप्त हुई । ग्रन्थकार कहते हैं कि जब पंचमीव्रतके प्रभावसे आप्तता (देवपना) भी प्राप्त हो जाता है तब मनुष्यगतिकी प्राप्ति होनेमें आर्य पुरुषोंको आश्चर्य नहीं करना चाहिए। मुनिराज कहते हैं कि कमलाका जीव प्रभंजन, श्रीका जीव सरल और संपत्का जीव तुम पूर्णभद्र हुए हो और जिसको श्रीने गाली दी थी वह सुभद्रा सम्पत्के स्नेहसे तुम्हारी बहिन होकर प्रभंजनकी पृथिवी नामकी प्रिया हुई और उसने पूर्व भवमें बैरके कारण पति और पुत्र दोनोंका विनाश किया । इस लिए पंडित पुरुषोंको कभी भी किसीसे बैर नहीं करना चाहिए । इस प्रकार श्रीवर्द्धन मुनिराजके मुखसे प्रभंजन आचार्यके चरितको सुनकर पूर्णभद्र महाराज और उनका पुत्र भानु दोनों ही दिगम्बर हो गये और तप करने लगे।
SR No.022754
Book TitlePrabhanjan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherMulchand Jain
Publication Year1916
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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