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________________ पाँचवाँ सर्ग। [ ३५ श्वासोच्छ्रास बिल्कुल रोक दिया जाता है जिससे बहुत दुःखी हो वे ज़मीनपर गिर जाते हैं । उस समय उन्हें बहुतसे कुत्ते, काक, बक, मृग, गवेधुक, सिंह, व्याघ्र, वृक, सर्प, सरभ, आखु, शूकर आदि पशुपक्षी आ-आकर छूट २ कर खा जाते हैं । जिसका जल विषके समान है, ऐसी उग्र वैतरणी नदीमें अवगाहन करा देते हैं। वहाँ भी मत्स्य वगैरह जीव आ-आकर शरीरको खाने लग जाते हैं जिससे नारकियोंको भारी विकलता पैदा होती है तथा उस नदीके दुर्गधित जलको पिला देते हैं, जिसके पीनेमात्रसे ही ऐसा दुःख होता है मानों प्राण ही निकले जा रहे हैं । इन दुःखोंको न सह सकनेके कारण वे नारकी भागते हैं और विश्रामकी इच्छासे पर्वतकी शिखरोंपर चढ़ जाते हैं। वहाँपर भी उन्हें सिंह, व्याघ्र, गीदड़ आदि पशु खानेको दौड़ते हैं, जिससे वे भारी विकल होते हैं। यदि वे वनमें चले जाते हैं तो वहाँ तलवार सारखे तीक्ष्ण वृक्षोंके पत्तोंसे पहिले तो शरीरके खण्ड २ . होते हैं, दूसरे दंश आदिक आ-आकर शरीरको खाने लग जाते हैं। अधिक क्या कहें शील भंग करनेवाले जीवोंको इससे भी कहीं अधिक२ वेदनाएँ भोगनी पड़ती हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि जो नारकियोंको सुख दे सके, ऐसा न कोई नरकमें द्रव्य है, न क्षेत्र है, न स्वजन है, और न स्वभाव-अपना कोई परिणाम ही है। . इस प्रकार शीलको भंग करनेवाला जीव छठी पृथिवीमें बाईस सागरतक घोर दुःखोंको भोगकर वहाँसे निकलता है, और स्वयंभरमण समुद्रमें जाकर महामत्स्य उत्पन्न होता है । वहाँ भी दुःखोंसे संतप्त होता हुआ बड़े२ पापोंका अर्जन करता है, और वहाँसे निकल
SR No.022754
Book TitlePrabhanjan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherMulchand Jain
Publication Year1916
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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