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________________ तीसरा सर्ग। [ २३. तो आपसे संक्षेपमें कह दिया । अब मैं थोड़ासा कथानक अनुभव किया हुआ कहता हूँ, तुम सावधान हो सुनो। . इस प्रकार स्त्रीके चरितको देखकर सुनकर और अनुमानसे जानकर मुझे बहुत वैराग्य पैदा हुआ। अतएव उसी समय मैंने जैनेन्द्री दीक्षा ले ली और मैं जिन भगवान्के बताए हुए तपको करने लगा। जब मैं अच्छी तरहसे मुनि धमकी क्रियाओंके प्रतिपादक आगमको पढ़कर सब क्रियाओंको खूब ही जान गया, तब मैंने गुरुसे निवेदन किया कि महाराज ! मैं आपकी अनुज्ञासे एकाकी विहार करना चाहता हूँ। गुरुवर्यने स्वीकार कर लिया। मैं भी उनको नमस्कार कर चलता बना-चला आया और कुछ समयमें एक पलाश नामक गाँवमें आया । यह गाँव प्रायः मांसभोजियोंसे भरा हुआ है-उनका ही यहाँ बहुलतासे निवास है। इस गाँवमें एक गुणाग्रणी सोमशर्म नामके ब्राह्मण रहते हैं। उनकी स्त्रीका नाममात्रका नाम सुभद्रा है, सार्थक नहीं। यहाँपर एक सुन्दर शून्य मकानमें हम ठहरे ही थे कि इतनेमें बालक और जारको साथ लिए वहींपर सुभद्रा (श्चली भी आगई । मैं एक कोनेमें बैठा २ देख रहा था कि उसने दूध पीते हुए और जोर २से रोते हुए प्रौढ पुत्रको तथा जारको मारडाला उस समय मैंने प्रतिज्ञा की कि मेरे ऊपर उपसर्ग आकर यदि क्रमसे चला जायगा तो मैं सवेरे आहार आदिमें प्रवृत्ति करूँगा, नहीं तो आजन्मको मेरे आहार आदिका त्याग है। जीनेमें, मरणमें, लाभमें, अलाभ-नुकसानमें,संयोगमें, वियोगमें, बन्धुमें, मित्रमें, सुखमें और दुःखमें मेरे हमेशा ही समता भाव हैं। मैंने उस समय जिनोंका, सिद्धोंका, उपाध्याय, आचार्य और साधुओंका जो.
SR No.022754
Book TitlePrabhanjan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherMulchand Jain
Publication Year1916
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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