SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -~ तीसरा सर्ग। [ २१ समता करता है, और निर्भय होनेके कारण अर्जुनके समान है, तो मैं तुम्हारे मनोरथको सिद्ध करनेकी चेष्टा करूँ । गंगश्रीने कहा कि यद्यपि यह अकर्तव्य है तौ भी मैं स्वीकार करती हूँ। यदि तुम मेरे पतिको मेरे मुखरूपी कमलके ऊपर चंचल नेत्रोंवाला कर देनेकी प्रतिज्ञा करो। दूतीने उसके वचनोंको स्वीकार कर लिया और रातके समय उसको विष्णुदत्तके पास पहुँचाकर अपने घरको चली आई। किसी दूसरे दिन इन्दुवापिकाने विष्णुदत्तसे कहा कि तुम गंगश्रीके पतिके सामने मुझसे अपना लाख्य वस्त्र माँगना । विष्णुदत्तने वैसा ही किया-यमुनके सामने दूतीसे अपना लाख्य वस्त्र माँगा । दूतीने कहा कि मुझे याद नहीं है; वह उस समय किसीके घर. पड़ा रह गया होगा जब कि मैं सबके घर पुष्प बाँटनेको गई थी । इतनेमें यमुनदत्तने कहा कि भद्रे ! तुम्हारा वस्त्र यह है। तुम मेरे घर छोड़ आई थीं, अब ले जाओ । दूतीने वस्त्र ले लिया और वहीं यमुनके सामने ही विष्णुदत्तको दे दिया । विष्णुदत्तने उसी वक्त बहुतसे वस्त्र वगैरह देकर दूतीका खूब सत्कार किया और गंगश्रीपर आसक्तचित्त वह सुखसे अपने घरमें रहने लग गया। यह सब वृत्त जानकर गंगश्रीके पति यमुनको भारी दुःख हुआ। वे बहुत पछतावा करते हुए अपनी भार्या गंगश्रीके पास पहुंचे और उसे नमस्कार कर कहने लगेहे सरल चित्तवाली साध्वि ! प्रसन्न होओ। तुम तो सतियोंमें श्रेष्ठा हो, पर मैंने अपने अज्ञानसे यह नहीं जाना और तुम्हें कटुक वचन कहकर दुःख दिया। इसके लिये हे सुलोचने ! मेरे ऊपर क्षमा करो । पतिके ऐसे वचन सुनकर माता पिताकी भेजी वह गंगश्री
SR No.022754
Book TitlePrabhanjan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherMulchand Jain
Publication Year1916
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy