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________________ तीसरा सर्ग। [ १९ वाक्योंको सुनकर मुझे बहुत ही विस्मय हुआ। मैं सोचने लगा महामोहोरुनीरस्य, वचनावर्त्तशालिनः । रामाचेतोंऽबुधेर्मानं, लभन्तेऽद्यापि नो नराः । अर्थात्-जिसमें महामोहरूपी भारी-अगाध तो जल भरा हुआ है और चतुराईके वचनरूपी भँवर उठा करते हैं उस स्त्रीके मनरूपी समुद्रकी थाह पुरुषोंने अबतक भी नहीं पाई है। राजन् ! मैंने यहाँतक अपनी सुनी हुई कथाको तो आपसे कह दिया; पर अब मैं अनुमानसे जाने हुए कथानकको कहता हूँ सो तुम सुनो। जब सोमश्री निराश हो गई थी-उसने जान लिया था कि श्रीवर्द्धन मेरे मनोरथको सिद्ध नहीं करेगा, तब उसने मुझे इन्दुवापिका दूतीका यह कथानक सुनाया था। प्रयाग एक सुन्दर शहर है । इसमें एक उत्तम वैश्य रहते थे। उनका नाम यमुन था, तथा भार्याका नाम गंगश्री था । वह बहुत प्रसिद्ध थी। उसी नगरमें एक विष्णुदत्त वैश्य और थे । एक दिन विष्णुदत्तकी दृष्टि, रूपवती व जावराय श्रीकर युक्ता गंगश्री सुन्दरीपर पड़ी। इसके रूप लावण्यकी छटाको देखते ही विष्णुदत्तका मन विह्वल पुरुषकी नाई हो गया । वह अपने घर कमलपत्रोंके विस्तरेपर सोया ही था कि उसके घर इन्दुवापिका नामकी दूती भिक्षाके अर्थ आई और विष्णुदत्तको कामात देखकर वह अपने आप ही बोल उठी कि मैं वैसे तो सभी शास्त्रोंमें ही कुशल हूँ; पर कामशास्त्रका मुझे पूरा २ अनुभव है । यदि आप कहें तो आपके मनको जिसने चुरा लिया है उसे आज ही आपके पास ले आऊँ। उसके इन वचनोंको सुन विष्णुदत्तने कहा कि मैं तो तुम्हारा किंकर हूँ, तुम
SR No.022754
Book TitlePrabhanjan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherMulchand Jain
Publication Year1916
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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