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________________ तीसरा सर्ग। [ १६. . पटना नगरके राजा नंदिवर्द्धन थे। उनकी रानीका नाम सुनन्दा था। नंदिवर्द्धन और सुनन्दाके पुत्रका नाम श्रीवर्द्धन था । इसी नगरमें एक हरिभद्र नामक वैश्य रहते थे। उनकी भार्याका नाम भामिनी था । हरिभद्र और भामिनीके अतीव उत्तम सात पुत्र हुए। उनके नाम श्रीदत्त, जयदत्तै, भद्रे, गोवर्द्धन, जयें, विष्णु, गाम इस प्रकार थे, तथा उनके दो पुत्रीं भी थीं जिनके बालरंडा और सुलक्षणा ये नाम थे । एक दिन सुलक्षणा तालावपर स्नान करनेको गई । वहाँ उसने श्रीधर नामके एक मनोहर विद्यार्थीको देखा । उसको देखते ही सुलक्षणाकी कामाग्नि जल उठी । श्रीधरने भी उसके दृष्टि-विभ्रमसे जब जान लिया कि यह मेरे ऊपर अनुरक्ता हो रही है तब उसने यह श्लोक पढ़ा पुण्डरीकविशालाक्षं, रोमराजीतरंगकं । उरोजचक्रिकं चेदं, भाति योषित्सरोवरं ॥ १ ॥ . अर्थात्-यह सरोवर स्त्रीकी नाई मालूम पड़ता है-शोभित होता है, क्योंकि जिस तरह स्त्रीके विशाल नेत्र होते हैं उसी तरह इसमें भी कमलरूपी विशाल नेत्र हैं, स्त्रीके रोमराजी होती है इसमें तरंगें ही रोमराजी है, स्त्रीके कुच होते हैं इसमें भी चक्रवाकरूपी कुच हैं । तात्पर्य यह है कि यह स्त्रीसे किसी बातमें भी कम नहीं है । इसके उत्तरमें सुलक्षणाने भी यह शोक बोला एतद्रसस्य योऽभिज्ञो, विलासी विमलाशयः । त्यागी भवति तस्येदं, स्निग्धयोषिसंरोवरं ॥ १ ॥ अर्थात्-यह योषित् रूपी सुन्दर सरोवर उसी पुरुषका है जो इसके रसका रसिक है-ज्ञाता है, विलासी है, विमलाशय है तथा
SR No.022754
Book TitlePrabhanjan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherMulchand Jain
Publication Year1916
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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