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________________ दूसरा सर्ग। इस तरह निवेदन करने लगा--" हे दीर्घायुष्क महाराज ! आप कल्पकालतक जीवें । आपका शौर्य, सत्य, श्रुत, त्याग आदि संसारभरमें उज्वल है। आपका यश पूर्णचन्द्रकी बराबर निर्मल है-दिगन्त, व्यापी है। आप प्रभंजनके वंशरूपी आकाशको सुशोभित करनेके लिये शरद ऋतुके चन्द्रमाके समान हैं। हे श्रीसरल महाराज! आपकी जय हो !" राजाने हर्षके साथ कहा-भद्र ! जो तुम चाहते हो वही निराकुल हो मागो। कलशने दृढ़ताके साथ कहा-राजन् ! मैं यही चाहता हूँ कि आप इस चोरको छोड़ देवें। इस बातपर राजामें और कलशमें बहुत वादविवाद हुआ। अन्तमें राजाने चोरको छोड़नेका हुक्म दे दिया और कहा-जिस चोरको कलश छुड़वा रहा है उस चोरको मेरे सामने ले आओ; देखू वह कैसा है। राजाकी आज्ञासे चोर उनके सामने लाया गया। राजाने देखते ही प्रभंजनको और प्रभजनने राजाको पहिचान लिया । वे दोनों ही एक दूसरेके कण्ठसे लग २ कर खूब ही रोये। तत्पश्चात् सरल महाराज उत्कण्ठित हो पिताको अपने घर ले आये । उस समय सरल महाराजने याचकोंको उनकी इच्छासे ही दान दिया-जिसने जो चीज़ मांगी उसे वही चीज़ दी, केवल प्रभंजन महाराजका अवलोकन किसीको न दिया-इकटकी दृष्टिसे वे स्वयं ही प्रभंजनको देखते रहे। सरल महाराजने उस समय कैदियों पक्षियों, मृगों आदि सभीको छुड़वा दिया और उन्हें उनके बन्धुओंसे मिला दिया। प्रभंजनको छुड़वानेवाले कलशको तो इतनी सम्पत्ति दी कि उसे अपने बराबर ही माला-माल कर लिया, किसी भी बातमें कम न रक्खा । सच है-सज्जनोंका उपकार कल्पवृक्षकी नाई फलता है।
SR No.022754
Book TitlePrabhanjan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherMulchand Jain
Publication Year1916
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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