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________________ प्रभंजन चरित । था। इस लिये उसके पिता प्रवरसेनने उसका ऋजु नाम रक्खा । एवं पृथिवीके भी एक पुत्र पैदा हुआ । वह भी बहुत सरल-सीधे चाल चलनका था। इसलिये उसके पिता प्रभंजनने उसका सरल नाम रक्खा। कुछ कालमें जब महाराज देवसेन विषयभोगोंसे विरक्त हो गये तब उन्होंने अपने दोनों पुत्रोंको बुलाया और प्रवरसेनको वेणातटपुरका तथा प्रभंजनको भंभापुरका राजा बना दिया । बाद देवसेन वनको चले गये और वहाँ मुनिगुप्त गुरुसे दीक्षा ले ली । मुनिगुप्तके पास उन्होंने घोर तप किया और आयुके अन्तमें मरण कर नवमें शुक्र स्वर्गमें देव पद पाया । एक समय प्रवरसेनके शत्रुने जब प्रवरसेनको बहुत कष्ट पहुँचाया; इससे तमाम भूतलको भी कष्ट हुआ। तब प्रवरसेनने यह सोचकर कि " निःसहाय पुरुषोंकी अभीष्ट-सिद्धि नहीं होती" अपने छोटे भाई प्रभंजनको एक पत्र लिख भेजा और आप शत्रुके जीतनेको शत्रुकी ओर चल पड़े। प्रभंजन भी अपने बड़े भाईका पत्र पाते ही उनकी सहायताको बहुतसे प्रबल सामन्तोंकी सेनाको साथ लेकर संग्राम-स्थलकी ओर चल पड़े। कुछ समयमें संग्राम-भूमिमें पहुँच गये। वहाँ उन्होंने शत्रुके साथ खूब घमासान युद्ध किया और थोड़ी ही देरमें शत्रुको उसके छोटे भाई सहित बाँध लिया और ले जाकर दोनों शत्रुओंको प्रवरसेनके सामने खड़ा कर दिया । उन दोनोंने प्रवरसेनको नमस्कार किया। प्रवरसेनने उन रिपुकाल और महाकालको नमते हुए देखकर उनके ऊपर जो क्रोधभाव था उसे बिल्कुल छोड़ दिया । सच है-सज्जनोंका क्रोध जबतक शत्रु नम्र न हो तभीतक रहता है। बाद उन दोनोंको भी छोड़ दिया। वे भी अपने स्वामी प्रवरसेनकी
SR No.022754
Book TitlePrabhanjan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherMulchand Jain
Publication Year1916
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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