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समय तक परस्पर प्रेम संवाद होता रहा और नारद जी देश देशान्तरों के समाचार सुनाते रहे ।
तदनंतर यह देखने के लिये कि कृष्ण जी की रानियां उनके समान विनयवान और उदार चित्त हैं या नहीं, नारद जी जो पूर्ण ब्रह्मचारी होते हैं और जिनके शीलव्रत पर किसी को भी संशय नहीं होता, कृष्णजी की आज्ञा पाकर, उनका अंतःपुर देखने के लिये भीतर गये। सबसे पहिले सत्यभामा के महल में पहुँचे । उस समय सत्यभामा दर्पण मागे रक्खे हुए वस्त्राभूषण पहन रही थी और उसका चित्त दर्पण में ऐसा लग रहा था कि उसे यह मालूम भी नहीं हुआ कि नारद जी आए हैं। नारद जी धीरे से उसकी पीठ के पीछे खड़े हो गये । जब उनके भस्म से लिपटे हुए और जटा से भयंकर दीखने वाले मुख का प्रतिविम्ब सत्यभामा ने अपने मुख के समीप देखा, तो उसने अपना मुख तिरस्कार की दृष्टि से बिगाड़ लिया । इस तिरस्कार की दृष्टि को ज्यों ही नारद जी ने देखा, वे क्रोध के मारे लाल पीले होगए और ' इस दुष्टनी के महल में क्यों आए' इसका पश्चात्ताप करते हुए अन्तःपुर से निकलकर कैलाश गिरि की ओर चलदिए । वहां पहुँचकर “सत्यभामा से कैसे बदला लूं" इसपर विचार करने लगे । नाना प्रकार के भाव मन में पैदा होते थे, कभी