SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३ घोराकृति आशासमुद्रनी कोण पूर्ति करी शके छ ? २०. तेथी तें भोजन करवान छोडी दीधं अने पछी विस्मयपूर्वक बेठेला तें करुणार्थी अथवा तेना पुण्यथी प्रसन्नतापूर्वक पोताना हाथमांनो कोळीओ तेने आपी दीधो. २१. ते कोळीओ खावाथी तेज वखते ते ब्रह्मचारीनी जठराग्नि तृप्त थई गई; जमके आशानो समुद्र निराशाथी पूर्ण थई जाय छे. अहो ! पूण्यनो महिमा मोटो छे. २२. त्यारे ए तपस्वी पण तेज वखते तृप्त थइने लांबा वखत सुधी ए विचारतो रह्यो के हुं आ महान उपकारीनो शो प्रत्युपकार करूं ? २३. पछी एवो निश्चय कर्यो के, एनो प्रत्युपकार परमोत्कृष्ट फळवाळी विद्याज छे, तेथी तेणे श्री. मान् चिरंजीवीने अर्थात् तमने विद्वान बनाव्या. २४. विद्या मळी होय अने जो ते बीजाने आपवामां आवे, तो पण वध्या करे. चोर वगेरे तेने चोरी शकता नथी, अने मननी ईच्छाओने ते पूर्ण करे छे. २५. पंडित्व अथवा विद्याथीज कुलीनता, प्रभुता, सज्जनो द्वारा सत्कार अने सभ्यता मळे छे, अने वधारामां विद्वाननो सर्व जग्याए आदरसत्कार थाय छे. २६. मनुष्यो, पंडित्व जीवन पर्यंत आनिन्दनीय अर्थात् स्तुत्य छे, अने भोक्षनो पण मार्ग छे; जेमके दूध क्षुधानी शान्ति पण करे छे, अने औषधि जेवो गुण पण करे छे. २७. शिष्ये गुरु पासे आ वात सांभळीने पोतानी वाणीथी तो कई उत्तर दीधो नहि, परंतु गुरुना मोंढानी चेष्टाथीज तेना
SR No.022747
Book TitleJivandhar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshatrachudamani
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1913
Total Pages132
LanguageHnidi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy