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________________ ११४ अनित्य, अपवित्र अने चेतनारहित होवाथी आ शरीर ताराथी दु छे अने सचेतन, अविनाशी, तथा पवित्र होवाने लधि तुं आ शररिथी जुदो छे. ४८. जे बुद्धि आपोआपज अशुभ कार्यमा लागे छे अने यत्न करवाथी पण शुभ काममां प्रवृत्त थती नथी, तेनो हेतु पूर्व जन्मनां दुष्कर्म छे, अने आ हेतुथी आत्मा पण तेवां कर्म करवा मांडे छे. ४९. ६ अशुचित्व भावना. जेना संबंधथी पवित्र वस्तुओ पण अपवित्र थई जाय छे अने जे रुधिर वीर्यादि मळोथी उत्पन्न थएल छे, शुं ते शरीर अपवित्र नथी ? अवश्य छे. १०. कर्मरुपी कारीगरनी खूबीथी आ शरीर स्पष्ट देखातुं नथी, तेथी रमणीय भासे छे, परंतु विचार करवाथी तेमां मळ, मांस, हाडकां अने मज्जा सिवाय बीजुं शुं छे ! अर्थात् शरीर एज अपवित्र पदार्थोनो पिंड छे. ५१. हे आत्मा ! बीजुं तो शुं, जो दैवयोगथी आ शरीरनुं अन्तःस्वरुप अर्थात् अंदरना भाग शरीरनी बहार नकळी आवे, तो तेनो अनुभव न करवानी इच्छा तो दूरज रही, परंतु कोई तेने जोशे पण नहि. १२. आ रीते हे आत्मा ! नाशने प्राप्त करनार, परंतु अविनाशी मोक्षना साधनभूत आ मांसपिंडमय शररिने आथी जे मोक्षरुप फळ मळे छे, तेने तेनो नाश थवा पहेलांज प्राप्त करीने छोडी दे; अर्थात् शरीरथी तपस्यादिक करीने मोक्ष प्राप्त कर अने पछी तेने छोड. ५३. हे आत्मा ! तुं आ शरीरनो सारांश लई ले, छ
SR No.022747
Book TitleJivandhar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshatrachudamani
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1913
Total Pages132
LanguageHnidi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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