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________________ .. .. . . . - + + , unr : .. . . नियंत्रण करना पड़ता है वह नियंत्रण विवेक पूर्वक की हुई तपथ से होता है। हे देवानुप्रिय ! इस संसार में नवकार के समान कोई मन्त्र नहीं है । प्राणियों की रक्षा-अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है, और श्री शत्रुजय तीर्थ के समान कोई तार्थ नहीं है। ये तीनों त्रिलोकी में अद्वितीय माने जाते हैं । नमस्कार मंत्र के प्रभाव से प्राणी पापों से छूट जाता है आपत्तियां मिट कर संपत्तियां हो जाती हैं। अहिंसा से जीवन अभय होकर अजरामर-पद का अधिकारी हो जाता है । शत्रुजय-तीर्थ के स्पर्श से अनन्त आत्मा बाह्याभ्यन्तर शत्रुओं को.जीत कर विजयी हो जाते हैं। श्री शत्रुजय-सिद्धाचल तीर्थ. पर जाने से पापी आत्मा भी निष्पाप हो मोक्ष में जाने हैं इस प्रकार उन मुनिराज की देशना को सुन कर धरण धर्म में बहुत प्रभावित हुआ और अपने दोनों हाथ जोड़ कर किये हुए पापों को प्रकाशित करता हुआ अपनी मात्मा की निन्दा करने लगा । हे पूज्य ! मैं हत्यारा बड़ा पापी है। कर्मों को करने वाला हूँ। मेरे से जो दो हल्लायें हुई हैं इससे मेरी क्या गति होगी-- अमः कृपा कर मेरे मार्ग-दर्शक बनें। . . . .. 4 .. . . . . .
SR No.022727
Book TitleShreechandra Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvacharya
PublisherJinharisagarsuri Jain Gyanbhandar
Publication Year1952
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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