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________________ धरण को विनयादि गुणों से युक्त देख कर उस सिद्ध पुरुष ने पूछा कि हे भाई ! तुम कौन हो ? इस प्रकार पूछे जाने पर उसने अपना आदि से लेकर अन्त तक का सारा वृत्तान्त कह सुनाया, और पूछ बैठा, कि मेरे द्वारा की गई दोनों हत्याओं के पाप से मेरा छुटकारा किस प्रकार होगा ? मुझ अपरिचित को भी अपनी गुप्त बात कह देने वाला यह निश्चय ही निष्कपट और भोला व्यक्ति है। ऐसा अपने मन में सोच कर सिद्ध पुरुष ने कहा “ हे भाई ! इस समय मैं स्वयं चिन्तित हूँ। बुद्धि स्वस्थ मनुष्यों की ही काम देती है। अतः मैं तुम्हें उपाय नहीं बता सकता ।" सिद्ध की बात को सुन कर धरण ने पूछा श्रीमानजी! आपको कौनसी चिंता सता रही है। प्रश्न का उत्तर देते हुए सिद्ध ने कहा । " मेरे गुरु ने पहले मुझे संतुष्ट होकर एक विद्या दी थी । वह विद्यासोने के पुतले के सामने सिद्ध होती है। सोना उतना मेरे पास है नहीं। पुतला बनता नहीं, विद्या सिद्ध होती नहीं। बस यही चिंता आज भी मुझे कांटे की तरह कष्ट पहूँचा रही है। __धरण बोला "मेरे पास अनेकों रत्न हैं जिनसे सोना खरीदा जा सकता है। आइये इन्हें बेचकर सोना खरीदें
SR No.022727
Book TitleShreechandra Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvacharya
PublisherJinharisagarsuri Jain Gyanbhandar
Publication Year1952
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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