SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 423
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपना धर्म-गुरु मानती हूँ। अब में वासनाओं पर मरने काली नहीं हूं प्रत्युत वासनाओं का विजय करगी। आपकी दया से आज मैंने जैन धर्म के सच्चे स्वरूप को समझ पाया है। आज से पूर्ण वीतरागी-श्रीजिन भगवान् को-देव, वीतराग भावमें रमण करने वाले को गुरु, और उन्हीं के बताये विधि विधानों को-धर्म रूप मामूगी छल कपट से हुए विवाह के बंधन को काटकर मैं अब जीवन पर्यन्त ब्रह्मचारिणी रहूँगी । शील ही मेरे जीवन का आदर्श रहेगा। राजा श्रीचन्द्र ने कहा देवी ! तुम धन्य हो । तुम्हारे जैसी सती माताओं के कारण ही हमारा मस्तक गौरव से ऊंचा है। हमारा देश आर्य देश कहलाता है। तुम्हारे त्याग और तप की बराबरी कौन कर सकता है ? इस त्याग और तप से मैं वंदन करता हूँ। ___ राजा बज्रसिंह और उनका परिवार राज कन्या हंसावली की वीर-प्रतिज्ञा को सुन कर बड़े प्रसन्न हुए। सारा वायु मण्डल ही आनन्दमय हो गया। राजा बज्रसिंह ने बड़े भारी समारोह के साथ कुमार को नगर प्रवेश कराया। यहां श्रीचन्द्र कुमार से प्रार्थना की कि कुमार ! हंसावली के मनोरथ तो दैव योग से सफल न हो सके,
SR No.022727
Book TitleShreechandra Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvacharya
PublisherJinharisagarsuri Jain Gyanbhandar
Publication Year1952
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy