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________________ ( १७६ ) : सेठ को उस जित किया । सेठ ने कुमार से एकान्त में कहा—श्रो मेरे प्यारे बेटे ! तुमने जो कुछ दानादि कार्य किये, ठीक किये। पर पिता होने के नाते कुछ कहना चाहता हूं। बेटा ! अपन बनिये हैं । राजाओं से श्रागे बढ़कर दान नहीं करना चाहिये । तुम स्वयं भी जानते ही हो, धीरमंत्री से भी तुमने सुना ही है, कि वे जयकुमार यादि राजकुमार तुमसे द्वेष रखते हैं । वे छिद्र देखते हैं। मौका पाते ही तुम्हें हानि पहुँचाना चाहते हैं। अगर सावधानी न रही तो वे प्राण लेने से भी नहीं चूकेंगे । बेटा ! तनिक तो सोचो, जिन घोड़ों की कृपा से तुमने इतनी पृथ्वी देखी और बड़े २ असम्भव कार्य भी किये हैं, उन घोड़ों का विना सोचे समझे योंही किसी को क्या दान कर देना चाहिये था ? पुत्र ! कहना मानो, घोड़ों समेत रथ का मूल्य देकर वापस लेलो । अपने पिता के वचनों का उत्तर देते हुए श्रीचन्द्र ने कहा - "पिताजी ! मनुष्य को कभी अपने आपको किसी से भी हीन नहीं समझना चाहिए । मैं बक्काल बनिया नहीं बनना चाहता हूँ । पहले शाह फिर बादशाह की कहावत को मैं चरितार्थ करना चाहता हूं। माना कि वे राजकुमार मेरे से द्वेष करते हैं, पर मनुष्य को हमेशा तदबीर करते हुए भी अपने तकदीर पर भरोसा रखना
SR No.022727
Book TitleShreechandra Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvacharya
PublisherJinharisagarsuri Jain Gyanbhandar
Publication Year1952
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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