SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौथा प्रकरण | २५ मोदन दिया। इसके बाद ' डीसा ' नगर से आपने शिष्यमण्डल के साथ विहार किया । जयसिंह मुनिने श्रीहीर विजयसूरिजी से स्व-परशास्त्र भी अपने . स्वाधीन कर लिए । इन्हों ने व्याकरण सम्बन्धी अनेक ग्रन्थ पढ़ने के साथ ही काव्यानुशासन - काव्यप्रकाश-वाग्भट्टलिंकार - काव्यकल्पलताछन्दानुशासन- वृत्तरत्नाकर श्रादि ग्रन्थों का भी अभ्यास किया । न्याय शास्त्र में स्याद्वादरत्नाकर - ( यह ग्रन्थ अणहिलपुरपाटन में राजा सिदराज जयसिंह के समक्ष ' कुमुदचन्द्र ' नाम के दिगम्बर आचार्य के साथ बिवाद करके 'जयवाद' प्राप्त करने वाले श्रीदेवसूरि ने बनाया है) अनेकान्त जयपताका रत्नाकरात्रतारिका प्रमाणमीमांसा न्यायाबतारस्याद्वादकलिका, एवं सम्मतितर्कादि जैन न्यायग्रन्थ तथा तत्वचिंतामारीकिरणावली प्रशस्तपादभाष्य इत्यादि अन्य शास्त्रों का अभ्यास करके दिग्गज पाण्डित्य को प्राप्त किया । श्रीहीरविजयसूरि विहार करते हुए जब स्तम्भतीर्थ पधारे, तब नगर में रहती हुई एक 'पुनी' नामकी भाविका ने बहुत द्रव्य का व्यय करके सुन्दर रचनापूर्वक श्रीजीने. श्वर भगवान् की प्रतिष्ठा करवाई। इस नगर के लोग ' जयबिमल के पारिडत्य को देख करके चकित होगये । ' योग्य पुरुषकी योग्यता पहचानना और योग्य का योग्य सत्कार करना, यह भी सज्जन लोग अपना परम धर्म समझते हैं ।' ' जयविमल' की योग्यता को देख करके समस्त श्रीसंघने सूरिजी से प्रार्थना की कि 'महाराज ! बड़े विद्वान्र तेजस्वी जयचिमल मुनीश्वर को ' पण्डितपद' प्रदान करना अच्छी बात है' । ' इष्टं वैद्योपदिष्टं ' इस न्यायानुसार सूरीश्वर ने अपना वि चार दृढ़ किया । इसके वाद सं० १६२६ मिती फाल्गुन शुक्ल दशमी के दिन त्यागी वैरागी और विद्वान् 'जयत्रिमल ' को आपने 'पारस' उपाधि से भूषित किया ।
SR No.022726
Book TitleVijay Prashasti Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
PublisherJain Shasan
Publication Year1912
Total Pages90
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy