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________________ विजयप्रशस्तिसार । गार्हस्थ्य को त्यागना चाहता हूं। इतना ही नहीं किन्तु यह विचार मेरा निश्चित है । हे प्राण पिये ! यह जयसिंह अभी बालक है, अ. त एष तू इसकी रक्षा कर और इसके साथ तू घर में रह । जब यह बालक बड़ा होजाय तब तुझे दीक्षा ग्रहण करनी हो तो करना । अभी तेरे लिये यह अनुचित बात है। ऐसे बाक्यों के समझाने पर कोडीमदेवी ने अपने पतिको दीक्षा लेने की माझा दी। इस समय में तपगच्छनायक श्री विजयदानसूरि जी स्तम्भ तीर्थ में विराजमान थे । अब 'कमा 'शेठ दीक्षा लेने के इरादे से नारदपुरी से शुभ मुहूर्त में रवाना होकर थोड़े दिनों में स्तम्भ तीर्थ गए । वहां आकर आचार्य महाराज से प्रार्थना की कि " हे प्रभो ! हे भट्टारक पूज्यपादा ! दीक्षादान से मुझे अनुग्रह क. रिये!" तदनन्तर प्राचार्य श्रीविजयदानसूरीश्वर ने संवत १६११ की साल में शुभ दिवस में इनको दीक्षा दी । अव कमा श्रेष्ठीं 'मुनि' हुए । खड़क की धार की तरह चारित्र को पालन करने लगे। धर्म के मूलभूत विनय का सेवन करने लगे। और दृष्ठ मन से पूर्व ऋषियों के सदृश 'साधु' धर्म का पालन करते हुए पिचरने लगे। , एक दिन अपने भगिनीपति 'कमा' श्रेष्ठी ने 'दीक्षा ग्रहण की है ' ऐसा सुन करके पल्लीपुर (पाली ) नगर से 'श्रीजयत' नामके संघपति कोडीमदेवी को मिलने के लिये 'नारदपुरी' पाए वहांपर कुछ रोज रहकर जयसिंह और उनकी माता कोडीमदेवी को घह श्रेष्टी अपने घरपर लाए । मेरु की गुफा में जैसे कल्पवृक्ष मारै पर्वत की गुफा में जैसे केशरी सिंह निर्भय होकर रहता है, उसी तरह इस पल्लीपुर (पाली ) नगर में 'जयासिंह कुमार ' अपनी माता के साथ अत्यन्त हर्षित हो रहने लगे और नगर निवासियों को मानन्द देकर समय व्यतीत करने लगे।
SR No.022726
Book TitleVijay Prashasti Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
PublisherJain Shasan
Publication Year1912
Total Pages90
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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