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________________ श्रमणोपासक चरित्र का पाँचवाँ भव वर्णन संपूर्ण हुआ। षष्ठम भव पुण्यानुबंधिपुण्य के प्रभाव से उन दोनों ने देव ऋद्धि का सुख भोगा। वहाँ से च्यवकर, वे दोनों जिस स्थल पर उत्पन्न होते हैं, उसके बारे में सुने । विदेह देश की मिथिला नगरी में, भुजाओं के पराक्रम से सिंह सदृश ऐसा नरसिंह राजा राज्य करता था। उसने अपने यश के समूह से दिशा- वलयों को स्वच्छ बना दी थी। नरसिंह राजा की अद्भुत गुणशाली, विशाल पुण्यवाली, शिरीषफूल के समान अत्यंत सुकुमाल, चन्द्रकला सदृश निर्मल ऐसी गुणमाला पत्नी थी। संपूर्ण सुखमय तथा दूसरों के द्वारा अलंघनीय ऐसी राज्य समृद्धि और पत्नी को प्राप्तकर नरसिंह राजा सुखपूर्वक समय बीताने लगा । एकदिन किसी विश्वसनीय पुरुष ने राजा से इस प्रकार विज्ञप्ति की - देव! मैंने आज नागरिक स्त्रियों को नगर के कुएँ के समीप परस्पर बातें करते हुए सुना था। उनमें से एक स्त्री ने कहा - नरसिंह राजा सदा जयवंत रहे। तब दूसरी स्त्रीने कहा- सखी! यह राजा नरसिंह नही है, किंतु नरजंबुक (शियाल) है, जो पुत्रहीन होते हुए भी बेफिकर है। इस विचित्र वार्त्ता को सुनकर, राजा ने मंत्रियों से पुत्र उपाय के बारे में पूछा। उन्होंनें भी कहा इस नगर में कोई देव नामक योगी है। वह योगी नगर में अत्यंत प्रसिद्ध है तथा लोगों का इष्ट देता है । आप उस योगी से पुत्र के विषय में पूछे। राजा ने भी बहुमान सहित उस योगी को बुलाया और विनयपूर्वक पूछा - योगी! आपके पास कैसी सामर्थ्यता है ? थोडा हंसकर योगी भी कहने लगा - राजन्! आप मुझे कार्य का आदेश दे। क्या इसी समय, मैं नागकन्या अथवा देवकन्या को वशकर लाऊँ? अथवा समुद्र सहित पृथ्वी को आपके पैरों तले ले आऊँ? अथवा हाथी, घोड़े के समूह तथा दूर पर रही किसी अन्य वस्तु को यहाँ पर ले आऊँ? अथवा आपका अन्य जो भी विषम कार्य हो, वह कहे। मैं शीघ्र ही उसे सिद्ध कर दूँगा। तब राजा ने कहा - योगी! यदि आप समर्थ हो तो, नागकन्या को इधर ले आए। ध्यान धारणकर, योगी ने तत्काल ही नागकन्या को राजा के समक्ष ले आया। नागकन्या योगी के सामने खड़ी होकर कहने लगी प्रभु ! आदेश दे। मैं क्या कर सकती हूँ? योगी ने कहा राजा के वचन अनुसार करो ऐसा आदेश दिया। वह भी राजा के पास गयी और कहने लगी- प्रभु! आदेश दे। तब राजा ने पूछा - तुम कौन हो ? और यहाँ क्यों आई हो ? नागकन्या ने कहा - मैं नागराज की पत्नी हूँ और योगी के आदेश से यहाँ आई हूँ। यह सुनकर राजा आश्चर्यचकित हुआ और वापिस लौट जाने की आज्ञा दी। वह भी अदृश्य हो गयी। अहो योगीन्द्र! आपका माहात्म्य अद्भुत है ऐसा कहकर राजा ने अपना 87 - - —
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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