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________________ तुम दोनों के संग की इच्छा से क्रीड़ा करने के लिए इस उद्यान में भेजा है। सखी के इन वचनों को सुनकर, वह शांत चित्तवाली हुई। कुमार भी अपने मित्रों के द्वारा यह समाचार कहने पर, हृदय में आनंदित हुआ। शुभ दिन और शुभ योग में उनके पिता सिंहसेन और विशाल ने, आनंदपूर्वक उन दोनों का पाणिग्रहण महोत्सव मनाया। रूप लक्ष्मी से कामदेव सदृश पूर्णचंद्रकुमार अपनी प्रिया पुष्पसुंदरी के साथ सुख अनुभव करने लगा। एकदिन नगरी के पुष्पशाला उद्यान में श्रीसुरसुंदर आचार्य ने पदार्पण किया। राजा उनको वंदन करने के लिए गया। प्रिया से युक्त, पूर्णचंद्रकुमार भी वहाँ गया। सभी लोग ने द्राक्ष का अनुकरण करनेवाले उनके व्याख्यान का श्रवण किया। व्याख्यान पूर्ण होने के बाद आचार्य के अद्भुत रूप से विस्मय प्राप्त पूर्णचंद्र ने उनसे पूछा-प्रभु! आपका रूप अत्यन्त श्रेष्ठ है और आपकी यौवन अवस्था है। प्रत्यक्ष लक्षणों से आप ऊँचे कुल में जन्मे होंगे इस प्रकार मैं मान रहा हूँ। फिर आपने किस वैराग्य के कारण से, इस कठिन व्रत को स्वीकार किया है? हे भगवन्! मुझे यह आश्चर्य हो रहा है, इसलिए मैं आपसे इसका कारण सुनना चाहता हूँ। तब आचार्य भगवंत ने कहा-राजपुत्र! यह संसार ही हमारे वैराग्य का कारण है, फिर भी तुम इस विस्तृत कथा को सुनो। रत्नपुर नामक एक नगर है। वहाँ पर सुधनश्रेष्ठी निवास करता था। साक्षात् लक्ष्मी के समान, उसकी लक्ष्मी नामक पत्नी थी। मैं उन दोनों का सुरसुंदर नामक अत्यंत प्रिय पुत्र था। यौवन अवस्था में, पिता ने बत्तीस कन्याओं के साथ मेरा विवाह किया। कुछ समय के पश्चात् माता-पिता का स्वर्गवास हो गया। उनके वियोग से दुःखित होते हुए भी मैं गृहव्यवस्था की चिन्ताओं से घिर गया था। ईर्ष्यालु स्वभाव के कारण, मैं अपनी पत्नियों को घर से बाहर निकलने नहीं देता था। घर में दूसरे लोगों का प्रवेश भी रोक दिया था। दरवाजे पर ताला लगाकर, मैं व्यापार के लिए जाता था। किन्तु वहाँ पर भी सैंकड़ों कुविकल्पों के कारण से चिर समय तक नहीं रुक पाता था। जैसे पक्षियाँ सूके उद्यान को छोड़ देते हैं, वैसे ही भिक्षुकों ने भी मेरा घर छोड़ दिया था. विशेष कर जैन मुनियों ने भी मुझ पापी का घर त्याग दिया था। एक दिन मैं द्वार पर ताला लगाना भूल गया था। मेरे जाने के बाद कोई मुनिभगवंत मेरे घर पर पधारे। उन्हें नमस्कार कर मेरी पत्नियाँ धर्म सुनने लगी। जिस समय मुनिभगवंत श्रीजिनधर्म के बारे में कह रहे थे, उसी समय मैं भी वापिस लौटकर दरवाजे के पास आ गया था। मैं रहस्य में छिपा रहकर, सावधान बना और अंदर की ओर झांकने लगा। मैंने देखा कि रूप के महानिधि सदृश वे मुनिभगवंत आसन पर बिराजमान थे आरै मेरी प्रियाएँ । उनके मुखकमल की ओर देख रही थी। तब क्रोध के आवेश में आकर, मैं सोचने
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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