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________________ आया। उन दोनों को स्वाभाविक रूप में बनाकर कहा - मनुष्य की गंध आ रही है। क्या यहाँ पर कोई मनुष्य आया है? तब विश्वास दिलाते हुए उन दोनोंने कहा - हम दोनों ही मनुष्य है। जब वह वहाँ से निकलने लगा, तब कन्याओं ने कहा - हम दोनों को यहाँ पर डर लगता है। इसलिए तुम शीघ्र ही वापिस आना। वापिस ऊंटनी बनाकर राक्षस चला गया। सुमित्र भी वहाँ पर आ गया। और दोनों अंजन की कूपिकाएँ ग्रहण कर ली। पहले स्त्री रूप में बनाकर, उन दोनों को वापिस ऊंटनी बनायी। एक के ऊपर रत्न की गोणिका रखी और दूसरे के ऊपर चढकर शीघ्र ही महाशालपुर की ओर प्रयाण किया। कुछ दिनों के बाद, सुमित्र एक मंत्रसिद्धपुरुष के साथ मिला। अपना समस्त वृत्तांत कह सुनाया। सिद्धपुरुषने भी उसे आश्वासन दिया। तीनों लोकों को कंपाता हुआ, चिल्लाता हुआ, भयंकर आकृतिवाला वह दुष्ट राक्षस भी पीछे आ गया। बलिष्ठ मंत्रसिद्धपुरुष ने, मंत्र के प्रयोग से उस राक्षस को थंभे के समान निश्चल बना दिया। राक्षस भी उसकी महिमा को देखकर आश्चर्यचकित हुआ और कहा - अहो! तूने सिद्ध कर दिया है कि राक्षसों से भी मंत्र-औषधि आदि अधिक बलवान् है। स्वामी! मुझे छोडकर, कार्य की आज्ञा करे। सिद्धपुरुष ने भर्त्सना करते हुए कहा - रे दुरात्मा! दुष्ट, पापिष्ठ! सुमित्र के साथ वैर छोड दे। राक्षस ने कहा - मैं आपका सब कहा हुआ करूँगा किंतु इन दोनों प्रियाओं को मुझे अर्पण करें। तब सिद्धपुरुष ने समझाया - हे राक्षस! पूर्वभव में तप-भ्रष्ट, भयंकर मृत्यु तथा अब इस दुर्गति को प्राप्त करने पर भी, तुम नरकप्रद परस्त्रीगमन को क्यों नही छोड रहे हो? सिद्धपुरुष के बचन से, राक्षस ने प्रतिबोध पाकर अपने अपराध की क्षमा-याचना माँगी और अपने स्थान पर चला गया। तब सुमित्र ने हर्षित होकर सिद्धपुरुष की स्तुति की - सत्त्वशाली, साहसिक, धीर और करुणाशाली विश्व में आप ही अद्वितीय है, जिसने राक्षस को भी प्रतिबोध किया है। सिद्धपुरुष ने भी कहा - सुमित्र! सत्त्वशाली और धर्मी पुरुषों में तुम ही श्रेष्ठ हो, जिसने मंत्र, विद्या आदि रहित होते हुए भी महासाहस किया है, तुम धन्यवाद पात्र हो। साहस से ही कार्य सिद्धि होती है। इस प्रकार स्तुतिकर सिद्धपुरुष चला गया। ___ क्रम से सुमित्र भी महाशाल नगर में आया। किराएँ का घर लेकर रहने लगा। सुमित्र उन दोनों पत्नियों के साथ सुखपूर्वक समय बीताने लगा। इधर सुमित्र के जाने के बाद, रतिसेना भी उदास रहने लगी। उसने तीन दिन तक कुछ भी नही खाया। चिंतामणि से कवडीमात्र भी प्राप्त न कर, व्यग्र बनी वृद्धवेश्या ने रतिसेना से कहा – बेटी! भोजन करो, इस धनवान् का दिल बहलाओ। वेश्याओं के लिए धन ही पति है। यह सुनकर सुमित्र पर अनुरागिनी बनी रतिसेना ने कहा - नदियों से समुद्र, काष्ठों से अग्नि जिस प्रकार तृप्त नही होता है, वैसे ही तूं 60
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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