SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रेष्ठी ने एकांत स्थान में हाथ जोडकर कारण पूछा। तापस ने कहा - इस ओर शेर और इस ओर नदी वाला न्याय लागू पड रहा है। यह बात तपस्वियों के कहने योग्य नही है, फिर भी तुम भक्तिमंत होने से कह रहा हूँ। भोजन करते समय, कुलक्षणों से युक्त तथा कुलक्षयकारी तेरी दोनों पुत्रियों को देखकर, भविष्य में होनेवाले तेरे कुलक्षय की चिंता से, हृदय में अचानक ही खेद उत्पन्न हुआ था। तब मुझे सरस भोजन भी नीरस लगने लगा। लेकिन तेरे आग्रह से थोडा - बहुत भोजन किया था। यह सुनकर श्रेष्ठी ने पूछा - इसकी शांति कैसे होगी? उसने कहा - युक्ति से ठीक हो सकता है, किंतु कार्य दुष्कर है। श्रेष्ठी ने कहा - कुल की रक्षा के लिए, मैं दुष्कर कार्य भी करूँगा। तापस ने कहा - कल्याण के लिए, लक्षणरहित वस्तु का त्याग ही करना चाहिए। इस न्याय से, अपनी दोनों पुत्रियों को चंदन, अगरु से लिप्त तथा आभूषणों से अलंकृत, शांतिकर्म करने के बाद, गुप्त रीति से संदूक में स्थापित कर गंगा में बहाना। उससे वंश की वृद्धि से तुम खुश होगे। मूढमनवाले श्रेष्ठी ने भी उसका कथन स्वीकार लिया। ____एकदिन श्रेष्ठी ने, हमारी माता से कहे बिना ही हम दोनों को संपूर्ण छिद्रों से आच्छादित एक नयी संदूक में डाल दिया। उसने लोगों के आगे कहा कि - यह हमारे कुल की रीति है कि विवाह योग्य कन्या को गंगा में देखी जाएँ। इस प्रकार कहकर गुप्तरीति से तापस के साथ उस संदूक को गंगा के तट पर लेकर गया। प्रातः शांतिकर्मकर, संदूक को गंगा के प्रवाह में बहाया। पिता विषाद सहित घर लौटकर शोक करने लगे। तापस भी अपने मठ में जाकर, हर्षपूर्वक शिष्यों से कहा - शिष्यों! मेरे मंत्र की सिद्धि के लिए गंगादेवी ने हिमालय से आज पूजा उपकरण से युक्त एक संदूक भेजी है। इसलिए तुम शीघ्र ही घाट पर जाकर, उस संदूक को खोले बिना इधर ले आओ, अन्यथा मंत्र विघ्न होगा। शिष्य भी दो गाउ प्रमाण जलाशय में उतरे और संदूक को देखने लगे, किंतु उन्हें दिखायी नही दी। इधर इस नगर का स्वामी सुभूम राजा सेना की नौ दलों के साथ, गंगा के तट पर पडावकर रुका हुआ था। गंगा में बहती संदूक को देखकर, अपने सैनिकों से बाहर निकलवाया। ताला तोड खोलकर देखा। हम दोनों के अद्भुत रूप को देखकर, राजा हम पर मोहित हुआ और स्नेहपूर्वक बुलाने लगा। लेकिन हम दोनोंने प्रत्युत्तर नही दिया। राजा के अभिप्राय को जाननेवाले मंत्री ने कहा - प्रभु! कारण बिना श्रृंगार से युक्त इन दोनों कन्याओं को कौन छोड सकता है? किसी ने अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए इन दोनों को संदूक में डालकर, गंगा में बहाया है। इसलिए किसी अन्य स्त्रियों को इस संदूक में डालकर, इन दोनों को ग्रहण कर लें। तब किसी दूसरे व्यक्ति ने कहा - इस जगह पर कन्याएँ कहाँ से मिल सकती है? इसलिए वन की दो वानरियों को ही इस में रख देते हैं। राजा ने 58
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy