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________________ इस कारण से मैं अचानक ही भूमि पर गिर पड़ा। पंगु के समान मेरी परिस्थिति देखकर, सुमेघ मेरी पत्नी को लेकर भाग गया है। मित्र! मैंने तुम्हारे आगे सब वृत्तान्त निवेदन कर दिया है। विद्याधर के दुःख से दुःखित बने, देवरथ कुमार ने कहा-तुम मेरे सामने वह विद्या पढ़ो। विद्याधर ने भी विद्या का पठन किया। पदानुसारीलब्धि के अनुसार, कुमार ने वह पद पूरा कर दिया। निर्धन को धन की प्राप्ति के समान, विद्याधर भी हर्ष से कुमार से कहने लगा-उपकारी कुमार! तूने मुझे आज नया जीवन दिया है। वास्तव में महात्माओं का संग, सफल ही होता है। अब विलंब करना उचित नहीं है, क्योंकि मुझे दूसरा कार्य है। पाठ से सिद्ध होनेवाली वैक्रिय नामक इस विद्या को ग्रहण करो। यदि इसके द्वारा भी तुम मुझे याद करोगे, तो मैं इस विद्या के बहाने भी तुम्हारे काम आने से कृतार्थ बनूँगा। कुमार ने भी विद्या ग्रहण की। विद्याधर सुमेघ के पीछे दौड़ा और कुमार क्रम से रतिरत्न नगर में पहुंचा। राजा ने भी आदर सहित कुमार के ठहरने के लिए सुंदर आवास दिये। बाद में सभी राजकुमारों के आ जाने के बाद, संध्या समय राजा ने चारों ओर घोषणा कराई कि-प्रातः सभी राजकुमार स्वयंवरमंडप में पधारें। देवरथ सोचने लगा-आभूषण आदि आडंबर से क्या प्रयोजन है? यदि मेरा भाग्य होगा, तो सामान्य रूप होने पर भी कन्या मुझे वरमाला पहनायेगी। ऐसा सोचकर, कुमार ने अपने मित्र को आसन पर बिठाकर, स्वयं कुरूप धारणकर वीणा हाथ में ली। इसी बीच सुखासन पर बैठकर, कन्या भी सभा में आ गयी। कन्या का रूप देखते ही सभी राजकुमार क्षोभित हो गये। किन्तु कन्या की दृष्टि किसी भी राजकुमार पर स्थिर न हुई। पूर्वभव के प्रेम से, उसने वीणावादक के कंठ में वरमाला डाल दी। तब मंडप में उपस्थित लोग इस प्रकार कहने लगे-इस कन्या को धिक्कार हो। इसने एक गन्धर्व को वरा है। सभाजनों के वचनों को सुनकर, रवितेज राजा दुःखित होकर सोचने लगा-नीचे की ओर प्रवाह करनेवाली नदियों के समान, स्त्रियाँ होती हैं। अथवा यह कोई महान् पुरुष होगा, जिसने अपना रूप परावर्तित कर दिया हो। क्योंकि कन्या की माता ने स्वप्न में रत्नावली देखी थी। कन्या ने इस गन्धर्व को वरा है, यह जानकर मंडप में उपस्थित सभी राजकुमार आक्रोश के वश बने और युद्ध के लिए तैयार हुए। तब रवितेज राजा ने उनसे कहा-राजकुमारों! तुम मेरा वचन सुनो। जल्दबाजी में बिनजरूरी ऐसी युद्ध की तैयारी क्यों कर रहे हो? जैसे पांच दिव्यों के द्वारा सामान्य मनुष्य भी राज्य पर बिठाया जाता है, वैसे ही कन्या भी स्वयंवर में अपने इष्ट वर को चुन सकती है। इससे आप लोगों का कौन-सा मानभंग हुआ है? यहाँ पर लज्जा की क्या जरूरत है? यदि तुम ईर्ष्या धारण करोगे, तो आपत्ति में गिर जाओगे। कदाग्रह के वश बने 52
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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