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________________ रविकिरण राजा ने अपने पुरुषों के साथ कन्या का चित्रपट देकर, देवसेनकुमार के पास भेजा। उसका चित्र देखकर, कुमार गाढ अनुरागी बना। विद्या से चंडाली का रूप बनाकर, रविकिरण राजा गान्धर्व नट के साथ देवसेनकुमार की राजसभा में आया। उसने मधुरस्वर में गाना प्रारंभ किया। सभी सदस्यगण मंत्रमुग्ध बन गएँ, किंतु कुमार चंद्रकांता के चित्र में व्यग्र होने से उसकी ओर ध्यान नही दिया। गाते-गाते वह भी थक गया। तब कुमार ने पूछा - गान्धर्व! तेरी पुत्री के पास कौन-सी कला है? उसने कहा - आपको इससे क्या कार्य है? आप मेरे गीत के बारे में विचार करे। कुमार ने कहा - पुनः गाओ! सदस्यों ने कहा - प्रभु! यह लंबे समय तक गाते हुए थक चुका है। अब क्लेश से क्या प्रयोजन है? यह सुनकर कुमार ने गीतगान रोक दिया। पश्चात् रविकिरण राजा सोचने लगा - कुमार भी चंद्रकांता पर गाढ अनुरागी दिखायी देता है। इसलिए इन दोनों का विवाह योग्य है ऐसा विचारकर अपने स्थान पर चला गया। उसके बाद विवाह योग्य समग्र सामग्री तैयारकर, लाखों विद्याधरों के साथ विमान में बैठकर, विविध वाजिंत्रों के घोष से आकाश को भरता हुआ विश्वपुरी ।। के समीप पहुँचा। सुरतेज राजा विस्मय होकर कुछ सोचे, उससे पहले ही किसी विद्याधर ने आकर नमस्कारपूर्वक विज्ञप्ति की - राजन्! आपके पुत्र को अपनी पुत्री देने के लिए विद्याधर राजा रविकिरण समीप आ गए है। इसलिए आपको विवाह की बधायी दी जाती है। यह सुनकर सुरतेजराजा भी हर्षपूर्वक आडंबर के साथ संमुख गया। आवास स्थान प्रदान किए गए और शुभ मुहूर्त में उन दोनों का विवाह संपन्न हुआ। रविकिरण राजा भी अपने स्थान पर वापिस लौट आया और वैताढ्यपर्वत से प्रतिदिन अपनी पुत्री के लिए दिव्य भोग्य वस्तु भेजने लगा। एकदिन सुरतेज राजा ने सद्गुरु से धर्मदेशना सुनी। संसार की असारता जानकर वैरागी बने। देवसेनकुमार को राज्य पर स्थापितकर, विशुद्ध परिणाम से चारित्र ग्रहण किया। देवसेन राजा भी न्याय मार्ग से प्रजा का पालन करता था। क्रम से चंद्रकांता ने सुंदर पुत्र को जन्म दिया। उसका शूरसेन नाम रखा गया। अन्य कार्य में चित्त व्याक्षिप्त होने से, एकदिन रविकिरण राजा इन दोनों को दिव्य भोग्य वस्तुएँ भेजना भूल गया। तब दासियोंने चंद्रकांता के लिए महल की उद्वर्तन, विलेपन आदि सामग्री ले आयी। उनको देखकर चंद्रकांता दीन मुखवाली बनी। और सोचने लगी - आज पिता ने मुझे कुछ भी नही भेजा है। मुझे कैसे भूल गए? क्या कोप से अथवा स्नेह के लोप से मेरी विस्मृति हुयी है? इस प्रकार विचार करने लगी। तब चतुर सखियों ने कहा स्वामिनी! अन्य के द्वारा प्रदत्त सुख नित्य नही होता है, जैसे माँगकर लाएँ गए गहने के समान। इसलिए अलाभ - लाभ में रोष-तोष नही करना चाहिए। अपमान का स्थान जानकर, लोग पराशा नही करतें 47
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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