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________________ विज्ञप्ति की - भगवन्! शुक युगल का द्रव्यस्तव कुशल अनुबंध का कारण कैसे हुआ? तब सूरिभगवंत ने इस प्रकार कथा प्रारंभ की - दक्षिण भरतार्ध में वैताढ्यपर्वत के निकट सर्व ऋतुओं में सदैव फल, फूल आदि से सुशोभित सिद्धिकर नामक वन था। उस वनखंड के मध्य में विद्याधर के द्वारा निर्मित मणि, रत्न से जड़े स्वर्ण सिंहासन पर प्रातिहार्य से युक्त माणेक से बनायी गयी अरिहंत की प्रतिमा विराजमान थी। वनखंड में विद्या सिद्ध करने के लिए आते बहुत से विद्याधरों के द्वारा यह प्रतिमा नित्य पूजी जाती थी तथा वंदन, स्तवन और भक्तिपूर्वक ध्यायी जाती थी। उसी वन में जिनमंदिर के नजदीक में, आम्रवृक्ष पर सरलस्वभावी, लघुकर्मी, परस्पर स्नेहशील एक शुक युगल (तोते की जोड़ी) निवास करता था। विद्याधरों के द्वारा की जाती प्रतिमा की पूजा देखकर, उनके हृदय में सदा आनंद का कंद वृद्धिंगत होता। ___एकदिन एकांत देखकर उस तोते के युगल ने भक्ति प्रफुल्लित मन से अरिहंत प्रतिमा के कानों पर आम्र की मंजरियों से बनायी माला स्थापित की तथा दोनों पैरों पर लेपकर भावना भायी। भाव के उल्लास से तिर्यंचगति नामकर्म का विनाशकर शातावेदनीय युक्त मनुष्यायु बांधा। कितने ही काल के पश्चात् विशुद्धिमानतोते ने आयुष्य पूर्णकर जंबूद्वीप के विदेहक्षेत्र में रमणीय नामक विजय में श्रीमंदरपुर के नरशेखर राजा की कीर्तिमती रानी की कुक्षि में पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुआ। स्वप्न में रानी ने सूर्यमंडल के समान कुंडल देखें। राजा से महाराज पुत्र की प्राप्ति सुनकर रानी हर्षित होती हुयी गर्भ का पालन करने लगी। जिस प्रकार पूर्णिमा की संध्या चंद्र को जन्म देती है, उसी प्रकार रानी ने प्रशस्त दिन में पुत्र को जन्म दिया। नाल का खनन करते समय बहुमूल्य रत्ननिधि निकली। राजा ने आडंबरपूर्वक पुत्र जन्म महोत्सव मनाया। निधि की प्राप्ति से तथा कुंडल के स्वप्न से, पुत्र का निधिकुंडल नाम रखा। निधिकुंडल कुमार यौवन-अवस्था प्राप्त करने पर भी, रमणीय स्त्रियों पर मुनिंद्र के समान लेशमात्र भी ध्यान नही देता था। स्वयंवर में आयी कन्याओं को कुशल अनुबंध कर्म के उदय से वीतराग के समान सामने भी नही देखता था। धुरंधर धनुर्धर होते हुए भी शिकार के बारे में सोचता नही था। मांस को विष तथा मदिरा को विष्टा के समान मानता था। निंदक लोगों को देखकर बहुत रोष करता था। शत्रु के भी गुणों को सुनकर हृदय में आनंदित होता था। इस प्रकार पिता आदि को आनंद उत्पन्न करता हुआ, मित्रों के साथ खेलता हुआ कुमार कलाओं से बढ़ने लगा। इस ओर माध्यस्थ तथा सरल आशयवाली वह शुकी भी आयुष्य पूर्णकर उसी विजय के विजयावतीपुरी में रत्नचूड राजा की सुवप्रा देवी की कुक्षि में पुत्री के रूप में अवतीर्ण हुयी। कालक्रम से माता ने जन्म दिया। पिता ने 39
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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