SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिमा के अंदर रहा हुआ सब अशुचि पदार्थ बाहर आ गया। उसके वस्त्र बिगड़ गये। राजा ने पूछा- क्या यह प्रतिमा दुर्गंधी पदार्थ से बनायी है ? बुद्धिसुंदरी ने कहा- मैं तो इस प्रतिमा से भी हीन हूँ । अग्नि और पानी के द्वारा इसकी शुद्धि की जा सकती है, किन्तु अशुचि से उत्पन्न और अशुचि का स्थान रूप यह मेरा शरीर शुद्ध नहीं किया जा सकता। उसकी यथार्थ वाणी सुनकर, राजा ने कहा- तूने मोहरूपी अंधकार से ग्रसित बनें मुझे सुंदर बोध दिया है। तुम मेरे समस्त पापों को क्षमा करो। बहन! मैं तेरा कौन-सा प्रिय कार्य कर सकता हूँ? तेरी वाणी से, भी आज के बाद परस्त्रियों से विमुख बनता हूँ। वस्त्र, आभूषण आदि से सन्मान कर, राजा ने उसे वापिस भेज दिया। बुद्धिसुंदरी ने जीवनपर्यंत दृढशील का परिपालन किया । ॥ बुद्धिसुंदरी चरित्र संपूर्ण ॥ ताम्रलिप्ती नामक नगरी है। वहाँ कुबेर के समान पुष्कल संपत्ति से युक्त धर्म नामक श्रेष्ठी रहता था। एक दिन वह अयोध्या नगरी में आया। दुकान में बैठे धन ने, बाजार से निकलती ऋद्धिसुंदरी को देखकर तत्क्षण ही मोहित हो गया । सुमित श्रेष्ठी की आज्ञा लेकर, धन ने उससे विवाह किया और अपने नगर लेकर आया। वे दोनों दंपति सुखपूर्वक रहने लगे । एक दिन धनश्रेष्ठी अपनी प्रिया सहित बेचने का माल लेकर सिंहलद्वीप गया और बहुत धन का उपार्जन किया। वहाँ पर रहे दूसरे माल को ग्रहणकर, वापिस अपनी नगरी की ओर लौटने लगा। भाग्य के योग से, खराब हवा के कारण, समुद्र के बीच ही जहाज तूट गया। दंपति ने लकड़े के पटिये को ग्रहणकर, समुद्र तीरा । भवितव्यता के वश से, पाँच दिनों के बाद दोनों दंपति किसी दूसरे द्विप में वापिस मिले। वे वन के फलों का आहारकर, अपने प्राणों का निर्वाह करने लगे । जहाज के निर्यामक को सूचित करने के लिए उन्होंने एक ध्वजा लहराई। ध्वजा को देखकर वहाँ कितने ही पुरुष आये और उन दंपति को देखा। बाद में उन्हों ने अपने स्वामी के पास जाकर कहा- सुलोचन नामक जहाज के मालिक ने, उन दोनों को जहाज में चढ़ने की अनुमति दी। ऋद्धिसुंदरी को देखकर, सुलोचन कामदेव के बाणों से वेधा गया। वह सोचने लगा- यदि यह स्वयं उत्कंठित बनकर, मुझे कंठ से आलिंगन न कर ले, तो मेरे जीवन अथवा इस यौवन से क्या प्रयोजन ? इसके पति के जीवित रहते, यह किसी भी तरह से मेरा स्वीकार नहीं करेगी। इस प्रकार सोचकर, सुलोचन ने मध्यरात्रि के समय धर्म को समुद्र में फेंक दिया। प्रातः पति को नहीं देखने पर, ऋद्धिसुंदरी रोने लगी। सुलोचन ने मधुर शब्दों से कहा- भद्रे ! रोने से रहा । यदि निःस्नेही तेरा पति चला गया है तो जाने दो। मैं तेरा सेवक बनकर तेरी सब इच्छाओं को पूर्ण करूँगा। 28
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy